Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१४२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण तरह स्वभाव मात्र को कारण मानने पर हमारे सभी दैनिक कार्य अवरुद्ध हो जाएंगे और हमारा जीवन स्थावर के समान हो जाएगा। अतः स्वभाववादियों का मत अव्यावहारिक है। संस्कृत साहित्य में स्वभाववाद का स्वरूप
संस्कृत साहित्यिक ग्रन्थों में भी दार्शनिक मतों का उल्लेख यत्र-तत्र प्राप्त होता है। बृहत्संहिता, बुद्धचरित, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि में 'स्वभाव' विषयक विभिन्न श्लोक मिलते हैं। स्वभाववाद के प्रसंग में इन सबका विवरण नीचे दिया जा रहा है। बुद्धचरित्त में
जीव के जन्म में, गर्भ में आने पर उसके शारीरिक विकास में, जीवन भर के शुभ-अशुभ कार्यों में, उसकी ऐन्द्रियक प्रवृत्ति में, रुग्णता व वृद्धावस्था में, अन्त में उसके मोक्ष-गमन में तथा प्रकृति की विचित्रता में स्वभाव ही कारण है, कहीं भी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है। ऐसा मन्तव्य बुद्धचरित में प्रतिपादित हुआ है
केचित्स्वभावादिति वर्णयन्ति शुभाशुभं चैव भवाभवौ च। स्वाभाविकं सर्वमिदं च यस्मादतोऽपि मोघो भवति प्रयत्नः।। यदिन्द्रियाणां नियतः प्रचारः प्रियाप्रियत्वं विषयेषु चैव। संयुज्यते यज्जरयार्तिभिश्च कस्तत्र यत्नो ननु स स्वभावः।।५३
शुभ, अशुभ, जन्म एवं मृत्यु स्वभाव से होते हैं। इन्द्रियों की प्रिय एवं अप्रिय विषयों में प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से होती है। जरा आदि रोग भी स्वत: ही होते हैं। इस प्रकार इन सबमें प्रयत्न करना व्यर्थ है।
जल से अग्नि का बुझना और अग्नि से जल का सूखना, विभिन्न प्रकार के पंचभूतों का एक होकर जगत् बनना, गर्भस्थ शिशु के हाथ-पैर, उदर आदि विभिन्न शारीरिक अंगों का निर्माण होना व आत्मा से उनका संयोग होना- इन सभी को रहस्यज्ञाता स्वाभाविक मानते हैं।१४
प्राकृतिक विचित्रता में भी स्वभाव ही कारण है, यथाकः कण्टकस्य प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा। स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः।।५५
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