Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कालवाद १११ "धम्माधम्मादीणं अगुरुलहुगं तु छहिं विवड्डीहिं। हाणीहिं विवडतो हायंतो वट्टदे जम्हा। यतः धर्माधर्मादीनामगुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेदाः स्वदव्यत्वस्य निमित्तभूतशक्तिविशेषाः षड्वृद्धिभिर्वर्धमानाः षड्हानिभिश्च हीयमानाः परिणमन्ति। ततः कारणात् तत्रापि मुख्यकालस्यैव कारणत्वात् इति।"
धर्म-अधर्म आदि अमूर्त द्रव्यों में अगुरुलघु गुण पाए जाते हैं। इन गुणों के अविभागी प्रतिच्छेदों में छ: प्रकार की हानि और छ: प्रकार की वृद्धि होती रहती है। यहाँ भी निश्चयकाल ही कारण है। अत: सब द्रव्यों में होने वाले परिणमन में काल सहायक है।
जगत में घटित होने वाले इन विभिन्न कार्यों से भी काल की कारणता का बोध होता है। जैसे-काल द्रव्य के निमित्त से कहीं कोई रोगी हो रहा है, उसी समय कोई नीरोग हो रहा है। कहीं पर रोग को बढ़ाने वाले कारण बन रहे हैं, अन्यत्र वन में रोग को नष्ट करने वाली औषधियाँ हो रही हैं। कहीं ज्वार के अंकुर ही निकले हैं, दूसरे देश में ज्वार पक चुकी है। किसी स्थान पर ज्येष्ठ मास में उग्र संताप हो रहा है, अन्यत्र शीत प्रदेशों में शीत पड़ रही है। संसारी जीव के कर्मबंध में भी काल कारण है और उसी समय मुक्तगामी जीव के कर्मक्षय में भी कारणकाल है। वनस्पति रूप औषधियों को पुरानी कर काल द्रव्य उनकी शक्ति का नाशक हो जाता है और मकरध्वज, चन्द्रोदय आदि रस स्वरूप औषधियों के पुराने पड़ने पर उनकी शक्ति का वर्धक हो रहा है। जीवन-मरण, पण्डित-मूर्ख, युवा-वृद्ध, यश-अपयश आदि अनेक प्रकार के विरुद्ध कार्य एक समय में होते हुए दिख रहे हैं।६१ मनुष्यों में बल, बुद्धि, देहमान, आयु प्रमाण आदि की तथा पुद्गलों में उत्तम वर्ण, गंध आदि की क्रमश: हानि होने में अवसर्पिणी काल कारण होता है, तो वहीं उत्सर्पिणी काल की कारणता से पुनः इसमें वृद्धि होने लगती है। लोक प्रकाश में छः ऋतुओं के परिवर्तन में काल की कारणता निरूपित की है।६२
___ अत: जगत् में संपादित होने वाले सभी कार्यों में काल सामान्य रूप से कारण है। यह उपर्युक्त सभी कार्यों में दृष्टिगोचर हो रहा है। किन्तु कुछ ऐसे कार्य हैं, जिनमें काल विशिष्ट कारण होता है। जैसे-वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व। विशेष कारणत्व से ये कार्य 'काल के कार्य' के नाम से जगत् में प्रसिद्ध हैं। जैनदर्शन में मान्य काल के कार्य
जगत् में कालकृत विभिन्न उपकार या कार्य है। इन्हीं को सूत्रबद्ध करते हुए तत्त्वार्थसूत्रकार ने लिखा है- "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य १६३
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