Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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११४ जनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
जो द्रव्य पूर्वभावी होता है वह 'पर' और जो पश्चाद्भावी होता है वह 'अपर'। पर-अपर तीन प्रकार का होता है- १. प्रशंसाकृत २. क्षेत्रकृत ३. कालकृत। इसमें तृतीय भेद 'कालकृत' ही काल का कार्य है। काल के कारण ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व होता है। जैसे-बलराम १० वर्ष का है और कृष्ण ८ वर्ष का। अत: बलराम कृष्ण से ज्येष्ठ है और कृष्ण बलराम से कनिष्ठ है। निष्कर्ष
भारतीय चिन्तन में विभिन्न कार्यों में काल की कारणता स्वीकार की गई है। चिर, क्षिप्र, परत्व-अपरत्व आदि में ही नहीं काल को समस्त कार्यों का कारण भी स्वीकार किया गया। वेद एवं पुराण में इसे एक परम तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया, जो सृष्टि का भी कलयिता है। अथर्ववेद में इसे प्रजापति स्वयंभू कश्यप आदि की भी उत्पत्ति का कारण प्रतिपादित किया गया है। शिवपुराण में वह ईश्वर रूप में प्रतिपादित है।
कालवाद के अनुसार एकमात्र काल ही समस्त कार्यों का कारण है। कालवाद के संबंध में कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इस सिद्धान्त को लेकर किसी ग्रन्थ की रचना की गई हो ऐसा भी उल्लेख नहीं मिलता ओर न ही इस सिद्धान्त के प्रवर्तक का नामोल्लेख मिलता है। कालवाद किसी एक व्यक्ति की मान्यता न होकर सामूहिक मान्यता बन गई थी, ऐसा प्रतीत होता है। कालवाद की मान्यता के संबंध में निम्नांकित श्लोक महाभारत, अभयदेव की सन्मतितर्क टीका, सूत्रकृतांग पर शीलांकाचार्य की टीका हरिभद्र सूरि विरचित शास्त्रवार्ता समुच्चय आदि ग्रन्थों में मिलता है
काल: पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः।। अर्थात् काल ही पृथ्वी आदि भूतों का परिणमन करता है। काल ही प्रजा का संहार करता है। काल ही लोगों के सो जाने पर जागता है इसलिए काल की कारणता अनुल्लंघनीय है।
कालवाद की प्राचीनता का अनुमान करना कठिन है। अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड के ५३-५४ वें सूक्त 'कालसूक्त' नाम से प्रसिद्ध हैं।
ये काल सक्त ही कालवाद के उदम के स्रोत प्रतीत होते हैं। इनमें निहित काल तत्त्व का ही विकास उपनिषद्, पुराण, महाभारत, ज्योतिर्विद्या आदि में हुआ है।
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