Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
कालवाद ११३ का जीव के प्रयत्न से हुआ विकार प्रयोगस्वरूप परिणाम है और जीव-प्रयत्नों से निरपेक्ष अन्य अन्तरंग-बहिरंग कारणों से विनसा स्वरूप परिणाम होता है। विस्रसा नामक परिणाम दो प्रकार का है- अनादि तथा आदि। धर्म, अधर्म और आकाश का सहज, स्वाभाविक रूप में सदा से होने वाला परिणाम अनादि है, तथा इनमें आदि परिणाम नहीं होता है। जीव और पुद्गल में आदि और अनादि दोनों वैससिक परिणाम होते हैं। यथा- जीव में द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, जीवत्व इत्यादि अनादि तथा औपशमिक, क्षायिक इत्यादि आदि-परिणाम है। पुद्गल में लोक की रचना, सुदर्शन मेरु की रचना, सूर्य चन्द्रमाओं की रचना अनादि परिणाम हैं और इन्द्रधनुष, बादल आदि परिणाम आदिमान् हैं। इनमें पुरुषप्रयत्न की अपेक्षा नहीं है, इस कारण ये अचेतन पुद्गल द्रव्य के वैनसिक परिणाम कहे जाते हैं। प्रयोगज परिणाम में पदार्थों की विभिन्न प्रकार की परिणतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, जैसे-मिट्टी की कुम्भ के रूप में परिणति, सुवर्ण की मुकुट-कलश में परिणति, दूध की दही के रूप में परिणति इत्यादि। इन सभी परिणामों में काल की कारणता व्याप्त है।१६७ ३. क्रिया- परिस्पंदात्मको द्रव्यपर्यायः संप्रतीयते।
क्रिया देशांतरप्राप्तिहेतुर्गत्यादिभेदभृत्।। १६८ द्रव्य की हलन, चलन आदि परिस्पन्दात्मक पर्यायें ही क्रिया है। यह क्रिया पदार्थों के प्रकृत देश से अन्य देशों की प्राप्ति में कारण है तथा गमन, भ्रमण, आकुंचन आदि भेदों को धारण करती है। लोकप्रकाशकार क्रिया को परिभाषित करते हुए लिखते हैं
भूतत्ववर्तमानत्व . भविष्यत्वविशेषणा। यानस्थानादिकार्यानां या चेष्टा सा क्रियोदिता।। १६९
भूतत्व, भविष्यत्व और वर्तमानत्व विशेषण वाली, पदार्थों की गति, स्थिति आदि चेष्टाएँ क्रिया कहलाती है। इनके होने में काल कारण है। ये तीन प्रकार की हैं१. प्रयोग गति २. विनसा गति ३. मिश्र गति। जीव के प्रयत्न से होने वाली क्रिया प्रयोगज है, जैसे शरीर, आहार, संस्थान आदि। अजीव मात्र की स्वतः क्रियान्विति विलसा गति है, जैसे- बिजली का गिरना, तूफान आना आदि। जीव और अजीव के संयोग से होने वाली क्रिया मिश्र कहलाती है। जैसे-वस्त्र का बुनना, खेती करना आदि। ४. परत्व-अपरत्व- पूर्वभावि परं पश्चाद्भावि चापरमिष्यते।
दव्यं यदाश्रयादुक्ते ते परत्वापरत्वके।। १७०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org