Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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११० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दव्वणिचयेसु।
कालाधारेणेव य वट्टति हु सव्वदव्वाणि।। १५८ वर्तना हेतु वाला काल है। द्रव्यों में परिवर्तन गुण होते हुए भी काल के आधार से सर्व द्रव्य वर्तते हैं। "यथाकाशद्रव्याम् अशेषद्रव्याणामाधारः स्वस्यापि, तथा कालव्यं परेषां दव्याणां परिणतिपर्यायत्वेन सहकारिकारणं स्वस्यापि" १५९ ।।
आकाश सभी द्रव्यों का आधार होने के साथ स्वयं का भी आधार है, उसी प्रकार काल सभी द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण होने से सदृश स्वयं के भी परिणमन में सहायक है। जैसे-दीपक घट-पट आदि अन्य पदार्थों का प्रकाशक होने पर भी स्वयं अपने आपका प्रकाशक होता है।
सभी द्रव्यों में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप में पर्याय-परिणमन प्रतिसमय होता रहता है। यह पर्याय दो प्रकार की होती है- १. स्वभाव पर्याय २. विभाव पर्याय। स्वभाव पर्याय धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव एवं पुद्गल इन सभी द्रव्यों में होती है, किन्तु विभाव पर्याय जीव और पुद्गल द्रव्य में ही होती है।। "जीवानां स्वभावपर्यायं अनन्तचतुष्टयात्मकं ज्ञानदर्शनसुखवीर्यात्मकं विभाव पर्यायं क्रोधमानमायालोभरागद्वेषादिकं नरनारकतिर्यग्देवादि रूपं च, पुद्गलानां स्वभावपर्यायं रूपरसगन्धादिपर्यायं विभावपर्यायं द्वयणुकत्र्यणुकादिस्कन्धपर्यन्तपर्यायं करेदि कारयति उत्पादयतीत्यर्थः। स च निश्चयकालः।।"१६०
जीवों की ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य रूप अनन्तचतुष्टय आदि स्वभाव पर्यायें हैं तथा क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष और नर-नारक-तिर्यक-देव आदि विभाव पर्यायें हैं। पुद्गलों की रूप-रस-गंध आदि स्वभाव पर्यायें हैं तथा द्वयणुक, त्र्यणुक आदि विभाव पर्यायें हैं।
विभाव पर्याय जीव और पुद्गल द्रव्य में ही होती है क्योंकि निमित्त मिलने पर इन दोनों द्रव्यों में विभाव रूप परिणमन होता है। यह काल आदि निमित्त से ही संभव है।
स्वभाव रूप परिणमन सभी द्रव्यों में होता है। जीव-पुद्गल के अतिरिक्त द्रव्य धर्म-अधर्म-आकाश-काल में स्वाभाविक परिणमन किस प्रकार होता है, इसको बताते हुए स्वामीकार्तिकेय लिखते हैं
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