Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
उरू च जानुयुगलं परतस्तु जङ्घे,
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पादद्वयं क्रियामुखावयवाः क्रमेण । ।
अर्थात् उस काल पुरुष के शिर में मेष, मुख में वृष, वक्ष में मिथुन, हृदय में कर्क, पेट में सिंह, कमर में कन्या, नाभि के नीचे तुला, लिंग में वृश्चिक, उरू में धनु, दोनों घुटनों में मकर, दोनों जांघों में कुम्भ और दोनों पैरों में मीन नामक राशियाँ स्थापित होती हैं।
इस प्रकार सभी ज्योतिर्विदों ने एकमत होकर काल को पुरुष का रूपक दिया है और उस कालपुरुष के अंगों पर मेषादि राशियों का क्रम से विन्यास किया है। मनुष्य के जन्मकाल में जो राशि बलवती होती है उससे संबंधित अंग अवश्य ही बलवान होता है और जो राशि जन्म समय से निर्बल होती है उससे संबंधित अंग अवश्य निर्बल होगा। इसकी पुष्टि में 'कल्याण वर्मा' ने लिखा है
कालनरस्यावयवान् पुरुषाणां कल्पयेत् प्रसवकाले ।
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सदसद्ग्रहसंयोगात् पुष्टान्सोपद्रवांश्चापि । ।
भर्तृहरि विरचित वाक्यपदीयं के काल समुद्देश में दक्षिणायन और उत्तरायण का विभाग, नक्षत्रों की नियत गति तथा महाभूतों के सर्ग और प्रलय में काल को कारण बताते हुए कहा है- 'अयनप्रविभागश्च गतिश्च ज्योतिषां ध्रुवां, निवृत्तिप्रभवाचैव भूतानां तन्निबन्धाः । ६ अश्विनी आदि तारामण्डल के उदय आदि से उस काल विशेष को अश्विनी आदि नक्षत्रों (तारामण्डल) का नाम दिया जाता है। इन नक्षत्रों से नियत काल विशेष का बोध होता है।
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अतः ज्योतिर्विद्या में काल एक प्रधान कारण के रूप में प्रकट हुआ है। इसे कालवाद का ही एक विकसित एवं परिष्कृत रूप कहा जा सकता है। विभिन्न भारतीय दर्शनों में काल का स्वरूप एवं उसकी कारणता
प्रायः सभी दर्शन काल को कार्य में साधारण कारण स्वीकार करते हैं, किन्तु कालवाद की मान्यता में वह असाधारण कारण है। यहाँ विभिन्न दर्शनों में निरूपित काल के स्वरूप पर विचार किया जा रहा है
वैशेषिक दर्शन में काल का स्वरूप एवं उसकी कारणता
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ऋषि ने वैशेषिक सूत्र में 'काल' को द्रव्य के रूप में स्थापित किया है। १७ ऋषि ने वायु के समान काल को नित्य बताया है । ५८
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