Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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८६ जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
वेदान्त दर्शन में काल
वेदान्त दर्शन के प्रणेता बादरायण ने काल तत्त्व के संबंध में स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं किया है। किन्तु उस दर्शन के प्रमुख व्याख्याकार शंकराचार्य मात्र ब्रह्म को ही मूल एवं स्वतन्त्र तत्त्व स्वीकार करते हैं, अन्य स्थूल एवं जड़ जगत् को मायिक अथवा अविद्या जनित सिद्ध करते हैं। शंकराचार्य का मत अद्वैत वेदान्त के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें एक मात्र ब्रह्म को सत् मानते हुए भी आकाश आदि पंचभूतों, सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर, विज्ञानमय- मनोमय - प्राणमय कोष आदि को अज्ञान से उत्पन्न माना गया है उसी प्रकार काल को भी अज्ञान जनित मानने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि व्यावहारिक या प्रातिभासिक जगत् में काल का व्यवहार होता हुआ देखा गया है।
प्रलय का वर्णन करते हुए वेदान्त परिभाषा में नैमित्तिक प्रलय में काल को निमित्त बताया है
"कार्यब्रह्मणो दिवसावसाननिमित्तकस्त्रैलोक्यमात्रप्रलयो नैमित्तिक प्रलयः ब्रह्मदिवसश्चतुर्युगसहस्रपरिमित कालः । "चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते। '
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कार्य ब्रह्म के दिवस का अवसान होने के निमित्त से जो तीनों लोकों का प्रलय होता है, उसे वेदान्त में नैमित्तिक प्रलय माना गया है। ब्रह्म के दिवस का समय चार हजार युग परिमित माना गया है।
शुद्धाद्वैत दर्शन के ग्रन्थ प्रस्थानरत्नाकर में प्रमेय स्वरूप ब्रह्म की स्वरूप कोटि, कारण कोटि और कार्य कोटि का निरूपण करते हुए स्वरूप कोटि के अन्तर्गत काल की भी चर्चा की है। स्वरूप कोटि में अक्षर के स्वरूपान्तर में काल, कर्म और स्वभाव का निरूपण किया है। कर्म और स्वभाव को कथंचित् काल का अंशभूत बताया है। अन्तः सच्चिदानन्द को काल का वास्तविक स्वरूप एवं व्यवहार में किंचित् सत्त्व अंश से काल को प्रकट बताया है। यही काल का स्वरूप लक्षण है" अन्तः सच्चिदानन्दो व्यवहारो ईषत् सत्त्वांशेन प्रकटः कालः इति कालस्य स्वरूप लक्षणम्।
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यह काल अतीन्द्रिय है एवं कार्य से अनुमित होता है। काल का लक्षण नित्यग, सकलाश्रय और सकलोद्भव के रूप में निरूपित है। इस काल से ही चिरक्षिप्र आदि का व्यवहार तथा अतीत, अनागत आदि का व्यवहार उत्पन्न होता है। इसका प्रथम कार्य सत्त्व, रजस एवं तमस गुणों में क्षोभ उत्पन्न करना है। " सूर्य आदि काल के आधिभौतिक रूप हैं, परमाणु (परमाणु उस काल को कहते हैं जितने समय
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