Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कालवाद ८९ सूत्रकृतांग में ही विभिन्न परमतावलम्बियों को क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद के रूप में विभक्त किया गया है
चत्तारि समोसरणाणीमाणि, पावट्या जाइं पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं, अण्णाणमाहंसु चउत्थमेव।। १० सूत्रकृतांग की नियुक्ति में इन मतवादों के भेदों का उल्लेख करते हुए कहा है
असिइसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई।
अन्नाणि अ सतट्ठी वेणझ्याणं च बत्तीसं।। ९१ अर्थात् क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और विनयवादी के ३२ प्रकार होते हैं। आगम-टीकाकारों ने इन मतावलम्बियों के भेदों का विस्तार से कथन किया है, जिनमें क्रियावादियों के १८० भेदों में कालवाद, ईश्वरवाद, आत्मतत्त्ववाद, नियतिवाद एवं स्वभाववाद का तथा अक्रियावादियों के ८४ भेदों में कालवाद आदि पाँच वादों के अतिरिक्त यदृच्छावाद का भी समावेश हुआ है। अज्ञानवादियों एवं विनयवादियों के भेदों में काल आदि का उल्लेख नहीं है। यहाँ पर इन विभिन्न मतवादियों के भेदों का संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा हैक्रियावाद आदि चार मत
क्रियावादी- जो क्रिया अर्थात् जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं वे क्रियावादी हैं। मरीचि कुमार, कपिल, उलूक, माठर आदि ऐसे क्रियावादी हैं। सूत्रकृतांग की टीका में शीलांकाचार्य ने जीवादि पदार्थों के सद्भाव को निश्चित रूप से स्वीकार करने वाले को क्रियावादी कहा है।३ अभयदेव सूरि ने स्थानांग वृत्ति में क्रियावादियों के लिए 'आस्तिक' शब्द का भी प्रयोग किया है। भगवती सूत्र की वृत्ति में अभयदेव सूरि ने क्रियावादी के दो अन्य लक्षण देते हुए कहा है- १. कर्ता के बिना क्रिया नहीं होती है तथा क्रिया आत्मा में समवाय संबंध से रहती है, ऐसा कहने वाले क्रियावादी हैं। २. क्रियावादी क्रिया को प्रधान मानते हैं तथा ज्ञान की उपेक्षा करते हैं।९५
क्रियावादियों ने जीव-अजीव आदि ९ तत्त्वों को स्वत:-परत: और नित्यअनित्य के आधार से कालवाद, ईश्वरवाद, आत्मवाद, नियतिवाद और स्वभाववाद में विभक्त कर १८० भेद निरूपित किए हैं। वे इस प्रकार हैं
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