Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कालवाद ८३ काल सदैव विद्यमान रहता है, अत: इसके अभाव का अभाव नित्य है। काल संख्या में एक ही है।५९ भूत,भविष्य और वर्तमान से इसे विभक्त किया जा सकता है,किन्तु मूल रूप से एक है। अतः वैशेषिक मतानुसार 'काल' एक द्रव्य है, नित्य है तथा संख्या में एक है।
प्रशस्तपाद अपने भाष्य में संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग इन पाँच गुणों से काल को युक्त मानते हैं। काल की ज्ञापकयौगपद्यादिविषयक प्रतीतियाँ सभी कालों में समान रूप से हैं, अत: संख्या में काल एक ही है।६१ यौगपद्यादि की प्रतीतियाँ सभी स्थानों में होती हैं, अतः काल व्यापक परिमाण वाला है।६२ एकत्व के साथ पृथक्त्व का अनुविधान अर्थात् नियत साहचर्य है। इससे काल में एकत्व के साथ पृथक्त्व की सिद्धि भी होती है।६२ काल और पिण्ड (अवयवी द्रव्य) का संयोग होने से काल में संयोग रूप गण की सिद्धि होती है।६४ विभाग चूंकि संयोग का विनाशक है, अत: विभाग भी काल में अवश्य है।६५
काल की सिद्धि में कणाद ने अनेक हेतु दिए हैं, यथा
'अपरिस्मन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि' ६६
अपर-पर का ज्ञान, एककालिकत्व और विभिन्नकालिकत्व तथा विलम्बशीघ्रता रूप विशिष्ट हेतुओं से काल को पहचाना जाता है। अर्थात् ये काल के लक्षण हैं।
स्थान विशेष से समीप-दूर, वय से छोटा-बड़ा, ऊँचाई से नाटा-लम्बा आदि अपर-पर हैं। अनेक वस्तुओं का एक काल में उत्पन्न होना एककालिकत्व और विभिन्न कालों में उत्पन्न होना विभिन्न कालिकत्व है। काल की न्यूनता व अधिकता ही शीघ्र एवं विलम्ब है। ये सभी प्रतीतियाँ काल के अभाव में नहीं होती है। इस प्रकार ये काल की कारणता को प्रकट करती है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार काल सभी क्रियाओं का सामान्य कारण है, ऐसा 'कारणेन काल: सूत्र से सिद्ध होता है। काल किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं करता इसलिए समवायी कारण नहीं है, अत: सामान्य रूप से सभी क्रियाओं का उसे आधार या निमित्त मान सकते हैं। जैसे- वस्त्र बुनने में धागा समवायी कारण है, परन्तु वेमा उसका समवायी कारण नहीं हो सकता, वैसे ही काल किसी कर्म का समवायी कारण नहीं, निमित्त कारण हो सकता है। काल अमूर्त अर्थात् बिना रूप वाला है और क्रिया मूर्त पदार्थों में ही होती है, अमूर्त पदार्थों में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि काल आधार या निमित्त ही है, समवायी कारण नहीं है।
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