Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कालवाद ७७ माण्डूक्योपनिषद् पर रचित गौडपादकारिका में कालवादियों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट कथन है-"कालात्प्रसूतिं भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तका: '२° इसी माण्डूक्यकारिका में कालविदों के मत में काल को ही परमार्थ तत्त्व प्रतिपादित किया गया है- 'काल इति कालविदो२१ टीकाकार ने 'काल इति कालविदो' का अभिप्राय प्रकट करते हुए कालविद् को ज्योतिर्विद् स्वीकार किया है-कालः परमार्थतः इति ज्योतिर्विदः।
श्वेताश्वतरोपनिषद् में कालवाद की मान्यता इस प्रकार प्रकाश में आई हैब्रह्मवादी परस्पर चर्चा करते हैं कि जगत् का मुख्य कारण कौन है, यह किसके आधार पर प्रतिष्ठित है
काल स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः।। २२ स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः।
देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम्।।३
वेद शास्त्रों में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पंच महाभूत, जीवात्माकारणों का वर्णन आता है। ये काल आदि पृथक् और समुदाय दोनों रूप से कारण नहीं हो सकते, क्योंकि ये आत्मा के अधीन हैं। आत्मा सुख-दुःखों के हेतुभूत प्रारब्ध के अधीन होने से कारण नहीं हो सकती।
वास्तव में यह परमदेव सर्वशक्तिमान परमेश्वर की ही महिमा है। ये स्वभाव और काल आदि समस्त कारणों के अधिपति हैं और उन्हीं के द्वारा यह संसार चक्र घुमाया जाता है। वैदिक काल में कालवाद विकसित एवं पल्लवित था, यह उपर्युक्त विवरण से स्वतः प्रमाणित होता है। पुराणों में कालवाद के तत्त्व
शिवपुराण में काल को शिव की शक्ति बताते हुए कहा गया है- सबकी उत्पत्ति और विनाश में काल ही कारण है। काल से निरपेक्ष कहीं भी कुछ भी नहीं होता। सृष्टिकारक एवं संहारक काल जंगम-स्थावर के द्वारा ही नहीं ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि सुर-असुरों द्वारा भी अनुलंघनीय है। इनके अतिरिक्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले ऋषि मुनि भी काल को जीतने में समर्थ नहीं हैं। कला, काष्ठा, निमेष आदि कलाओं से निर्मित कालात्मा का शरीर शिव का परम तेज है। शिव की अंशमयी शक्ति कालात्मा रूप महात्मा में उसी प्रकार निकल कर संक्रान्त हो गई है,
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