Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कालवाद ७५ का स्वरूप वैशेषिक दर्शन की भांति ही युगपद्, चिर, क्षिप्र आदि व्यवहार से अनुमित माना गया है तथा इसे आकाश, दिशा एवं देश के समान कार्योत्पत्ति में साधारण कारण स्वीकार किया गया है। सांख्य दर्शन में यद्यपि काल को पृथक तत्त्व नहीं माना गया है, किन्तु उसे पंचभूतों में आकाश के स्वरूप में समाहित करते हुए उसे कैवल्य आदि की प्राप्ति में साधारण कारण स्वीकार किया गया है। चार आध्यात्मिक तुष्टियों में काल को तृतीय तुष्टि के रूप में प्रतिपादित किया गया है। योग दर्शन में मुहूर्त से लेकर महाकाल पर्यन्त काल को बुद्धिकल्पित समाहार के रूप में तथा क्षण को वास्तविक काल के रूप में मान्य किया गया है। अद्वैत वेदान्त में काल को अज्ञानजन्य तथा शुद्धाद्वैत वेदान्त में काल की आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधिदैविक दृष्टि से व्याख्या की गई है। काल के स्वरूप के संबंध में जैन दर्शन के आगम ग्रन्थ, दर्शन ग्रन्थ और अन्य ग्रन्थों में भी विशद वर्णन है। अनस्तिकायत्व, अप्रदेशात्मकता, अनन्तसमयरूपता, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यशीलता, स्थूलता, ऊर्ध्वप्रचयता, कारणता, कार्य और भेद आदि विभिन्न कोणों से जैन दर्शन में काल का वर्णन मिलता है। काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के संबंध में जैन दार्शनिकों में मतभेद है।
यहाँ अथर्ववेद, महाभारत आदि विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर कालवाद के स्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् विभिन्न दर्शनों में मान्य काल के स्वरूप की चर्चा की जाएगी तथा फिर जैन दर्शन के ग्रन्थों में चर्चित कालवाद का उपस्थापन कर उनका खण्डन प्रस्तुत किया जायेगा। वेद, उपनिषद् और पुराण में कालवाद
कारण-कार्य सिद्धान्त में एक मत कालवाद का है। कालवाद के अनुसार प्रत्येक कार्य का कारण काल ही है और वही सृष्टि का मूल कारण है। कालवाद का सिद्धान्त कब से प्रारम्भ हुआ यह तो सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु काल को ही प्रमुख कारण के रूप में मानने का उल्लेख वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत और विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। जगत् की सृष्टि काल से स्वीकारने का उल्लेख उपनिषद् में प्राप्त होता है। किन्तु कालवाद का प्रवर्तक कौन था, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अथर्ववेद में 'काल सूक्त' के रूप में काल की महिमा गायी गई है। शिवपुराण में काल को शिव की शक्ति और विष्णुपुराण में इसे विष्णु की शक्ति के रूप में मान्य किया गया है। इस प्रकार उस समय कालवाद का प्रचार बहुत अधिक व्यापक रूप से हुआ। बड़े-बड़े महर्षि भी इस वाद को मानने वाले थे। एक दिन संसार में इसी की दुन्दुभि बजा करती थी। प्राचीन काल में काल का इतना महत्त्व होने के कारण ही दार्शनिक काल में चिन्तकों ने ईश्वरादि कारणों के
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