Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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कालवाद ७३ काल से जलतत्त्व(आप:) उत्पन्न हुआ, काल से ही ब्रह्म, तप एवं दिशाएँ उत्पन्न हुईं, काल से ही सूर्य उदित होता है तथा पुन: काल में ही निविष्ट होता है। नारायणोपनिषद् में कहा है
'कालश्च नारायणः' अर्थात् काल नारायण स्वरूप है। शिवपुराण में
अप्रियैश्च प्रियश्चैव ह्यचिंतितसमागमैः।
संयोजयति भूतानि वियोजयति चेश्वरः।।' काल ईश्वर रूप है, जो अप्रिय, प्रिय एवं अचिंतित वस्तुओं से प्राणियों को संयोजित करता है और वियोजित करता है। विष्णु पुराण में
परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः द्विजः।
व्यक्ताव्यक्ते तथैवान्ये रूपे कालस्तथापरम्।।
परम ब्रह्म का प्रथम स्वरूप पुरुष है, अव्यक्त (प्रकृति) और व्यक्त (महदादि) उसके दूसरे रूप है तथा काल उसका परम प्रधान रूप है। भगवद् गीता में कहा है
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ६
कृष्ण स्वयं कहते हैं- "मैं लोक का क्षय करने वाला, प्रवृद्ध काल हूँ तथा इस समय लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।"
वैदिक काल में प्रचलित मान्यताओं के साथ श्वेताश्वतरोपनिषद् में काल की समस्त जगत के प्रति कारणता स्वीकार करने वाले कालवाद का नामोल्लेख प्राप्त होता है- 'कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या"
ज्योतिर्विद्या में काल के आधार पर ही समस्त गणनाएँ की जाती हैं तथा जीव एवं जगत् की विभिन्न घटनाओं का आकलन काल के आधार पर ही किया जाता है।
भारतीय संस्कृति में कालवाद की मान्यता की जडें इतनी गहरी हैं कि जनजीवन में इसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं। बुरे दिनों का आना, अच्छे दिनों का आना आदि की जनमान्यता 'कालवाद' या काल की कारणता को ही इंगित करती है।
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