Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय समवाय शब्द ने अपने विकास में एक लम्बी यात्रा तय की है। सिद्धसेन सूरि ने कालो सहाव णियई.... गाथा में पाँच कारणों को गिनाकर 'समासओ' शब्द का प्रयोग किया है।१२° जिसका अर्थ है समन्वित या समस्त रूप से। हरिभद्र सूरि ने 'समासओ' के स्थान पर 'कलाप'' व 'समुदाय'" शब्द का प्रयोग किया है। अभयदेव सूरि ने एवं शीलांकाचार्य ने 'समुदित '१२३. शब्द का प्रयोग किया है। शीलांकाचार्य के द्वारा उद्धृत गाथा में समुदायेण शब्द स्पष्टतः प्रयुक्त है । १२४ यह समुदाय शब्द ही आगे चलकर समवाय शब्द के रूप में परिणत हो गया। पंचसमवाय एक समस्तपद है, जिसका विग्रह होगापंचानां कारणानां समवायः । यह मध्यम पदलोपी समास है, जिसमें कारण शब्द का लोप होकर पंच समवाय शब्द निष्पन्न हो गया।
समवाय शब्द का प्रयोग जैन वाङ्मय में प्राचीन है। समवायांग सूत्र इसका अप्रतिम उदाहरण है। जिसमें विभिन्न समवायों (समूहों) में प्रतिपाद्य विषय का निरूपण किया गया है। वहाँ समवाय शब्द समूह के अर्थ में प्रयुक्त है। वैशेषिक दर्शन में समवाय को एक पदार्थ के रूप में निरूपित किया गया है जो गुण-गुणी, क्रियाक्रियावान, अवयव-अवयवी आदि में संबंध स्थापित करता है तथा वह नित्य एवं एक है । वैसा समवाय यहाँ अभीष्ट नहीं है। यहाँ तो समुदाय या समूह का बोधक समवाय शब्द ही अभिप्रेत है। द्वादशारनयचक्र के टीकाकार सिंहसूरि ने भी इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया है- 'कार्यकारणाधाराधेयसमवायात्।
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पंच समवाय के अन्तर्गत समाविष्ट काल, स्वभाव, नियति, कर्म एवं पुरुष / पुरुषार्थ में जब एक-एक को ही माना जाता है तो इन्हें क्रमशः कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, कर्मवाद ओर पुरुषवाद / पुरुषार्थवाद कहा जाता है। इन विभिन्न वादों का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है, विस्तार से विवेचन सम्बद्ध अध्यायों में किया गया है।
कालवाद
अथर्ववेद काल से कालवाद का प्रारम्भ माना जाता है। उससे पूर्व भी काल को कारण माना गया, किन्तु एकान्त रूप से नहीं। सभी कार्यों में मात्र काल को ही कारण मानने से ये कालवादी कहलाए। अथर्ववेद में काल का महत्त्व स्थापित करने वाला कालसूक्त है जो इस बात की पुष्टि करता है -
कालो भूमिमसृजत, काले तपति सूर्यः ।
काले ह विश्वा भूतानि, काले चक्षुर्विपश्यति । । १२६
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