Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण दाता या कर्ता कहा जाता है वैसे ही परमात्मा की उपासना से विभिन्न फलों की प्राप्ति होने से वह विभिन्न फलों का कर्ता कहा जाता है।
अत: 'ईश्वर संसार का कर्ता हैं। इसका अर्थ है कि ईश्वर ऐसे व्रतों का उपदेष्टा है जिनका सेवन न करने से संसार बनता है अर्थात् संसरण होता है। ईश्वर में संसारकर्तृत्व का यह औपचारिक व्यवहार उसी प्रकार उपपन्न किया जा सकता है जिस प्रकार 'अङ्गुल्यग्रे करिशतम्' अङ्गुल के अग्रभाग में सौ हाथी खड़े हैं, यह व्यवहार अङ्गली के अग्रभाग से सौ हाथी की गिनती होने के आधार पर उपपन्न किया जाता है।
प्रत्येक आत्मा शक्ति रूप से परमात्मा है, इसलिए परमात्मा का ईश्वरकर्तृत्व निर्बाध रूप से सिद्ध होता है
पारमैश्वर्ययुक्तत्वात्, आत्मैव मत ईश्वरः।
स च कर्तेति निर्दोषं, कर्तृवादो व्यवस्थितः।।४४
आत्मा परम ऐश्वर्य सम्पन्न है। अत: वह ईश्वर है, वह कर्ता है, इस दृष्टि से महावीर के दर्शन में ईश्वरकर्तृत्ववाद स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है।
महावीर ने आत्मा के कर्तृत्व का निरसन नहीं किया। उन्होंने उस कर्तृ-सत्ता का निरसन किया, जिसे समग्र जगत् का कारण माना गया है। भगवान् महावीर ने परमात्मा या तीर्थकर के अस्तित्व का प्रतिपादन किया, किन्तु उसकी मनुष्य से भिन्न सत्ता स्वीकार नहीं की। भगवान् ने मनुष्य को परमात्मा के स्थान पर प्रतिष्ठित किया और यह उद्घोष किया कि संसार का संचालन करने वाला कोई ईश्वर नहीं है, वह मनुष्य का ही चरम विकास है। जो मनुष्य विकास की उच्च कक्षा तक पहुँच जाता है, वह परमात्मा या ईश्वर है। अन्यवाद
पूर्वोक्त काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म, पुरुषार्थ/पुरुषवाद (ईश्वरवाद) आदि कारणों के अतिरिक्त भी भारतीय चिन्तकों ने अन्य कारणों के रूप में अपने-अपने वाद का प्रतिपादन किया है। जैसे-भूतवाद, प्रकृतिवाद, यदृच्छावाद आदि।
भूतवाद- यह भौतिकवादी धारणा है। इसके अनुसार पृथ्वी, अग्नि, वायु और पानी ये चारों महाभूत ही मूलभूत कारण हैं, सभी कुछ इनके विभिन्न संयोगों का परिणाम है।
प्रकृतिवाद- प्रकृतिवाद त्रिगुणात्मक प्रकृति को ही समग्र जागतिक विकास तथा मानवीय सुख-दुःख एवं बंधन का कारण मानता है।
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