Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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६२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण उन्होंने मृदादि की एकता सत्त्व, प्रमेयत्व आदि के आधार पर अनन्यता सिद्ध की है। जैन दार्शनिक कारण-कार्य को एकान्त सदृश एवं एकान्त असदृश न मानकर सदृशासदृशात्मकता स्वीकार करते हैं।
अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों ने कारण-कार्यवाद पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है। जिनमें प्रमुख हैं
१. षट्कारकों की कारणता २. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और भव की कारणता ३. षड्द्रव्यों की कारणता ४. निमित्त और उपादान की कारणता ५. पंच समवाय की कारणता
विशेषावश्यक भाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान एवं अधिकरण कारकों की कारणता को प्रतिपादित कर अनेकान्त दृष्टि का परिचय दिया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की कारणता पर विचार जैन दार्शनिकों का अपना मौलिक योगदान है। वे इन चार कारणों को आधार बनाकर समस्त कारण-कार्य सिद्धान्त की व्याख्या करते हैं। अजीव द्रव्यों में घटित होने वाले कार्यों में इन चारों कारणों का व्यापक दृष्टि से विचार किया गया है। जीव में घटित होने वाले कार्यों के प्रति भव की कारणता को भी अंगीकार किया गया है। नारक, तिर्यक्, मनुष्य और देव भव विभिन्न कार्यों के विशिष्ट कारण होते हैं। उदाहरणार्थ देव भव और नरक भव में वैक्रिय शरीर जन्म से होता है, उनमें अवधिज्ञान/विभंग ज्ञान भी जन्म से होता है। मनुष्य और तिर्यक् भव में जन्म से औदारिक शरीर होता है, अवधिज्ञान में उनका भव कारण नहीं है। केवलज्ञान मनुष्य भव में ही हो सकता है। इस प्रकार भव की विशिष्ट कारणता पर जैन दार्शनिकों ने विचार किया है। जीव में घटित होने वाले कार्यों में क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भावों का विशिष्ट स्थान है।
जैन दार्शनिकों ने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और कालद्रव्य की कारणता पर विचार किया है। इन षड्द्रव्यों के अपने उपग्रह या उपकार हैं। वे ही उनके कार्य हैं जो अन्य द्रव्यों के कार्यों में भी सहायक बनते हैं। धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति में, अधर्मास्तिकाय उनकी स्थिति में, आकाश सभी द्रव्यों के अवगाहन में, पुद्गल-द्रव्य जीव के शरीर,
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