Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
७०
जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ११३. बौद्ध प्रमाण मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा, पृ. ५७ ११४. सन्मति तर्क ३.५३ पर अभयदेव की टीका ११५. प्रवचनसार के परिशिष्ट में ११६. षड्दर्शन समुच्चय, श्लोक ७९ ११७. जिनेन्द्र भक्ति प्रकाश में विनयविजय की पंचसमवाय की ढाल ६ का पद्य २ ११८. तिलोक काव्य कल्पतरु, पंचवादी स्वरूप विषयक काव्य, पृ. १०५ ।। ११९. एम.ए. (प्रथम वर्ष) का तृतीय प्रश्नपत्र, खण्ड (ख)-जैन विश्व भारती
संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं १२०. सन्मति तर्क ३.५३ १२१. उपदेश पद, गाथा १६५ १२२. शास्त्रवार्ता समुच्चय २.७९ १२३. (क) सन्मति तर्क ३.५३ की तत्त्वबोधविधायिनी टीका में
(ख) सूत्रकृतांग, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन १२ की प्रारम्भ की शीलांक टीका में १२४. सूत्रकृतांग १.१२ की प्रारम्भ की शीलांक टीका में १२५. द्वादशारनयचक्र, पृ. ७१० १२६. अथर्व संहिता काण्ड १९ १२७. न कर्मणा लभ्यते न चिन्तया वा नाप्यस्ति दाता पुरुषस्य कश्चित्। पर्याययोगाद् विहितं विधात्रा कालेन सर्व लभते मनुष्य।।
-महाभारत 'शांतिपर्व' अध्याय २५, श्लोक ५ १२८. कालः स्वभावोनियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद् १.२ १२९. कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुत: प्रयत्नः।।-बुद्धचरित, ५२ १३०. स्वभावात्संप्रवर्तन्ते निवर्तन्ते तथैव च। सर्वे भावास्तथाऽभावाः पुरुषार्थो न विद्यते।।
___-महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय २२२, श्लोक १५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org