Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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५२ जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
अर्थात् काल से ही पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है, काल के कारण ही सूर्य तपता है, समस्त भूतों का आधार काल ही है। काल के कारण ही आँखें देखती हैं।
महाभारत में तो प्रत्येक उपलब्धि का आधार काल को बतलाकर उसका महत्त्व सुप्रतिष्ठित है । वहाँ समस्त जीव सृष्टि के सुख-दुःख, जीवन-मरण इन सबका आधार भी काल को ही माना गया है। कर्म से, चिंता से या प्रयोग करने से कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं होती किन्तु काल से ही समस्त वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। सब कार्यों के प्रति काल ही कारण है।
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अतः कालवादी के अनुसार काल के बल से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं। वस्तुत: इस अद्भुत काल की मर्यादा अनुल्लंघनीय है। ग्रीष्मकाल में ही सूर्य तपता है, शीतकाल में ही ठंड पड़ती है, चातुर्मास में ही वर्षा होने पर धान्य पकता है । वसंत ऋतु में ही वृक्ष नव-पल्लव युक्त होकर फलते-फूलते हैं, प्रातः काल ही कमल विकसित होता है और सायंकाल ही संकुचित होता है । यौवन काल में ही मनुष्य के
मूँछ आती है और युवती ही गर्भ धारण करती है।
प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करने वाला, स्थिर करने वाला, संहार करने वाला, संयोग में वियोग और वियोग में संयोग करने वाला भी काल ही है। परमाणु को द्वयणुक रूप बनाने वाला तथा द्व्यणुक से परमाणु को भिन्न करने वाला भी काल है। क्योंकि परमाणु तथा द्वयणुकादि अनन्तानंत स्कन्ध स्थिति के आधीन रहते हैं और स्थिति काल ही है। कर्मोदय करने वाला तथा नियत समय तक कर्म का फल देकर उससे मुक्त करने वाला भी काल ही है। किं बहुना मनुष्य को संसार से मोक्ष में भेजने वाला भी काल ही है । भवस्थिति पके बिना मोक्ष भी प्राप्त नहीं हो सकता । अतः जड़ चेतन सब वस्तुओं पर काल का ही साम्राज्य चलता है।
स्वभाववाद
स्वभाववादियों का मत है कि इस जगत् की विचित्रता में स्वभाव के अतिरिक्त कोई अन्य हेतु नहीं है। स्वभावतः ही वस्तु की उत्पत्ति एवं नाश होता है। पदार्थों में भिन्नता या समानता का कारण भी स्वभाव है, यथा- अग्नि की उष्णता और जल की शीतलता स्वभावगत ही है। जिस पदार्थ में जैसा स्वभाव है वह उसी कें अनुसार स्वरूप ग्रहण करता है। आम की गुठली से आम और बेर की गुठली से बेर ही उत्पन्न होगा, क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही है। वैदिक काल से ही स्वभाववाद पल्लवित हुआ है, इसका प्रमाण श्वेताश्वेतरोपनिषद् के प्रथम अध्याय में प्राप्त होता है। १२८
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