Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
१४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कार्य-कारण की भेदाभेदता
जैन दर्शन भेदाभेदवादी है। वह कारण को कार्य से न तो सर्वथा पृथक् मानता है और न सर्वथा अपृथक्। जैन दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त अनेकान्तवाद और स्याद्वाद सिद्धान्तरूपी भूमि पर पल्लवित और पुष्पित हुआ है। अत: एकान्त भेद और एकान्त अभेद जैनदर्शन को मान्य नहीं है। पदार्थ को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानने से उसमें घटित होने वाले कार्य भी भेदाभेदात्मक स्वीकार किए गए हैं। भेदाभेद मानने पर एकान्त भेद और एकान्त अभेद से होने वाले समस्त दोष स्वत: निरस्त हो जाते हैं।
जिस प्रकार घट मृत्तिका से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी होता है, उसी. प्रकार कार्य कारण से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी होता है। घट मिट्टी से ही निष्पन्न होता है, क्योंकि घट निर्माण की शक्ति मृत्तिका में ही है। घट रूप से निष्पन्न होने पर भी वह मृत्तिका से अभिन्न है। इसी तरह पहले जब मिट्टी थी, तब घट नहीं था और तब घट से निष्पन्न होने वाले कार्य भी नहीं होते थे, अत: मिट्टी और घट भिन्न भी हैं।१८
वृत्तिकार अभयदेवसरि (१०वीं शती) ने निष्कर्ष रूप में यही लिखा है"कारणात् कार्य अन्यत् कथंचित् अनन्यत् अतएव तदतदूपतया सच्च असच्च
इति।१९
इस प्रकार एकान्त सत्कार्यवाद और एकान्त असत्कार्यवाद काल्पनिक हैं और दोनों का समन्वित रूप ही यथार्थ और युक्तियुक्त है।
वादिदेवसूरि(१२वीं शती) ने कार्य-कारण के एकान्त भेद और एकान्त अभेद का खण्डन किया है। एकान्त अभेद मानने वाले सांख्य दर्शन का खण्डन करते हुए वे कहते हैं-२० "न खलु कापिलपरिकल्पितः कार्यकारणयोरभेदैकान्तः स्वप्नेऽपि प्रतीयते। संज्ञासंख्यास्वलक्षणादि भेदत- स्तन्त्वादिकारणपटादिकार्ययोर्भेदस्याप्टा- नुभूयमानस्य निह्नोतुमशक्यत्वात्।" अर्थात् कपिल मतावलम्बी सांख्यों का कार्य-कारण-अभेद एकान्त सम्यक नहीं है। कारण और कार्य का भेद अनुभवगम्य है, तन्तु आदि कारणों और पटादि कार्यों में संज्ञा, संख्या, स्वलक्षण आदि भेद की स्पष्ट प्रतीति होती है। कार्य-कारण में ऐकान्तिक भेद मानने वाले वैशेषिकों का भी वादिदेवसूरि ने खण्डन करते हुए कहा है- “नापि वैशिषिकादिसंमतस्तयोर्भेदैकान्तः कदाचनाप्यानुभवभुवमगाहते।' २२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org