Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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'नेरतियाणं भंते! कतिविधे करणे पन्नत्ते?
जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय २१
गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा- दव्वकरणे जाव भावकरणे । एवं जाव वेमाणियाणं ।
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भगवन्! नैरयिकों के कितने करण कहे गए हैं?
गौतम ! उनके पाँच प्रकार के करण कहे गए हैं, यथा- द्रव्यकरण यावत् भावकरण (नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक इसी प्रकार का कथन करना चाहिए)
यहाँ पर नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में समस्त संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सभी संसारी जीवों में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की कारणता स्पष्ट है।
सूत्रकृतांग नियुक्ति में द्रव्य-क्षेत्र काल एवं भाव से जीव को कर्ता स्वीकार किया गया है- 'दव्वे खित्ते काले भावेण उ कारओ जीवो।
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दिगम्बर आगम 'कसाय पाहुड५ में प्रागभाव के विनाश में (जो कार्य का कारण माना गया है) द्रव्य-क्षेत्र - काल - भाव की अपेक्षा स्वीकार की गयी है। 'पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल- भावावेक्खाए जायदे।'
कर्म विपाक के संबंध में भी द्रव्यादि की कारणता मानी गयी हैउदय - क्खय-खओवसमोवसमा वि य जं च कम्पुणो भणिया । दव्वं खेत्तं कालं भावं च भवं च संपप्ण । ।
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अर्थात् जीवों में कर्मों के उदय-क्षय-क्षयोपशम और उपशम द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव और भव का निमित्त पाकर घटित होते हैं।
आगम के अतिरिक्त दार्शनिक ग्रन्थों में भी बंध, उदय आदि कार्यों में द्रव्यक्षेत्र - काल - भव-भाव की कारणता मानी गयी है। भट्ट अकलंक (७२० - ७८० ईस्वीं शती) ने राजवार्तिक में कहा है
"प्रकृष्टं शुभकर्म सर्वार्थसिद्धिसौख्यप्रापकं तीर्थंकरत्वमहर्द्धिनिर्वर्तकं वा असाधारणम्। अशुभकर्म च प्रकृष्टं कलंकलपृथिवीमहादुःखप्रापकं अप्रतिष्ठाननरकगमनं च कर्मभूमिष्वेवोपार्ज्यते द्रव्य-भव- क्षेत्र-काल
भावापेक्षत्वात् कर्मबन्धस्य । '
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- क्षेत्र - काल
सर्वार्थसिद्धि प्राप्त कराने वाला या तीर्थंकर प्रकृति बांधने वाला प्रकृष्ट शुभकर्म अथवा सातवें नरक ले जाने वाला प्रकृष्ट अशुभ कर्म द्रव्य-भव - और भाव की अपेक्षा से कर्मभूमि में ही बंधता है।
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