Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण काल की कारणता
पुद्गलों के सड़न-गलन और विध्वंसन में और जीवों के कर्मबंधन एवं मुक्ति में काल सहकारी निमित्त बनता है। काल को दो रूपों में बाँटकर उसकी कारणता बृहद्-द्रव्यसंग्रह में इस प्रकार सिद्ध की गई है
दव्व परिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो।
परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो।।४
अर्थात् जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक, परिणामादि लक्षण वाला है, वह व्यवहारकाल है, वर्तना लक्षण वाला जो काल है, वह निश्चयकाल है। परिणामादि से तात्पर्य क्रिया, परत्व, अपरत्व से है और वर्तन का अर्थ परिवर्तन से है। कालद्रव्य अन्य द्रव्यों के परिणमन में तो सहकारी बनता ही है साथ में स्वयं के परिणमन में भी वैसे ही सहकारी बनता है। पुद्गल की कारणता
जीवों के सुख-दुःख, जीवन-मरण, शरीर, मन, वचन और उच्छ्वासनिःश्वास में पुद्गल द्रव्य निमित्त कारण बनता है। अत: उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है
शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम्।
सुख-दुःख जीवित मरणोपग्रहाश्च।।५ शरीर औदारिक पुगलों से निर्मित है। भाषा और मन भी पुद्गल हैं और श्वासोच्छ्वास क्रिया भी वायु के पुद्गलों से होती है। सातावेदनीय और असातावेदनीय कों के द्वारा जीव सुख-दुःख भोगता है, ये कर्म पौद्गलिक हैं। कोमल स्पर्श, सुगन्धित द्रव्य मन को सुख देते हैं और गर्मियों में शीतल वायु आदि भी सखद प्रतीत होते हैं। जबकि दुर्गन्ध, रुक्ष और कठोर स्पर्श वाले तीखे काँटें आदि दुःख की अनुभूति कराते हैं।
इस प्रकार सभी इन्द्रियों के विषय भी पौगलिक होने से इन्द्रियों के कार्य पुद्गलों पर ही आधारित हैं। स्पष्ट होता है कि पुद्गल द्रव्य जीवों के कार्य में निमित्त कारण बनते हैं। भगवती सूत्र में पुद्गल को कारण रूप में व्याख्यायित करते हुए कहा है
"पोग्गलऽस्थिकाए णं जीवाणं ओरालिय-वेउब्विय-आहारग-तेयाकम्मा-सोतिंदिय-चक्विंदिय-घाणिंदिय-जिब्भिंदिय-फाकिम्मा-सोतिंदियचक्खिंदिय-घाणिंदिय-जिभिंदिय-फाचि गहणं पवत्तति। '१६
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