Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ४३ अथवा तिर्यंच पर्याय की प्राप्ति के पहले सात व्यसन, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह, मायाचार, कपट, छल-छद्म वगैरह सामग्री को अपनाता है। इस तरह जीव में विशेष कारणों से कार्य विशेष संभव हो पाता है।
पंच समवाय और उसकी कारणता
पंच समवाय से आशय
जैनदर्शन में कारणवाद के संदर्भ में पंच समवाय का सिद्धान्त आधुनिक युग में सुप्रसिद्ध है तथा जैन धर्म की सम्प्रदायों को मान्य है। पंच समवाय से तात्पर्य है पाँच का समवाय- 'पंचानां (कारणानां ) समवायः पंचसमवायः' अर्थात् पाँच कारणों का समवाय या समुदाय ही पंच समवाय कहलाता है। वे पाँच कारण हैं - १. काल २. स्वभाव ३. नियति ४. पूर्वकृत कर्म और ५. पुरुष / पुरुषार्थ । जैनदर्शन में इन पाँच कारणों के समुदाय को कार्य की उत्पत्ति में कारण स्वीकार किया गया है।
भारतीय वाङ्मय में स्वभावादि कारणों की चर्चा
प्राचीन काल में कारण-कार्यवाद के संदर्भ में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित रही हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है
कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः । ।
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अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत एवं पुरुष - ये कारण माने जाते है। किन्तु ये कालादि पृथक् और समुदाय दोनों रूप से कारण नहीं हो सकते क्योंकि ये आत्मा के अधीन हैं। आत्मा सुख - दुःखों के हेतुभूत प्रारब्ध के अधीन होने से कारण नहीं हो सकती। वास्तव में श्वेताश्वतरोपनिषद् के अनुसार सर्वशक्तिमान् परमदेव की महिमा को समस्त कारणों का अधिपति स्वीकार किया गया है।
यहाँ पर यह सुस्पष्ट है कि श्वेताश्वतरोपनिषद् के समय काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पंच महाभूत, पुरुष, आत्मा आदि को कारण मानने के सिद्धान्त प्रचलित थे।
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महाभारत में भी विभिन्न कारणों की चर्चा प्राप्त होती है
कारणं पुरुषो ह्येषां प्रधानं चापि कारणम् ।
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स्वभावश्चैव कर्माणि दैवं येषां च कारणम्।।
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