Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
४४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
अर्थात् पुरुष प्रधान स्वभाव, कर्म तथा दैव ये जिन कार्यों के कारण हैं वे भी नारायण रूप ही हैं।
पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः। दैवमेके प्रशंसन्ति स्वभावमपरे जनाः।। पौरुषं कर्म दैवं च कालवृत्तिस्वभावतः।
त्रयमेतत् पृथग्भूतमविवेकं तु केचन।।१०३ अर्थात् कुछ मनुष्य पौरुष (पुरुषार्थ) को कारण कहते हैं, कोई दैव(भाग्य) की प्रशंसा करते हैं और कोई स्वभाव को स्वीकार करते हैं। कुछ मनुष्य पौरुष क्रिया, दैव और कालगत स्वभाव इन तीनों को कारण मानते हैं। कुछ इनको पृथक्-पृथक् कारण मानते हैं तो कुछ सम्मिलित रूप से।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्। विविधा च तथा चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम्।।
पंचकारणसंख्यातो निष्ठा सर्वत्र वै हरिः।।०४
अधिष्ठान, कर्ता, करण, नाना चेष्टाएँ तथा दैव इन पाँच कारणों के रूप में सर्वत्र श्री हरि ही विराजमान हैं।
महाभारत के उद्धरण विभिन्न कारणवादों का उल्लेख करते हुए उनमें समन्वय की स्थापना करते हैं। महाभारत के उद्धरणों से ज्ञात होता है कि उस समय (५४७ ई० पूर्व) कारण-कार्य को लेकर विभिन्न मान्यताएँ प्रचलित थीं। यथा- पुरुषवाद, स्वभाववाद, दैववाद, प्रकृतिवाद (प्रधानवाद), पुरुषार्थवाद, कालवाद आदि।
जैनागमों और बौद्धत्रिपिटकों में वे काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा आदि विभिन्न कारणवादों का उल्लेख प्राप्त होता है। कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, कर्मवाद, पुरुषवाद, ईश्वरवाद आदि की चर्चा जैन बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों में प्रासंगिक रूप से हुई है। बौद्ध त्रिपिटकों में नियतिवाद की चर्चा विस्तार से प्राप्त है। दीघनिकाय आदि ग्रन्थ इसके निदर्शन हैं। जैनागमों में भी नियतिवाद की चर्चा अधिक हुई है। सूत्रकृतांग एवं उपासकदशांग में क्रमशः द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन व द्वादश अध्ययन और सातवें अध्याय के शकडाल कुम्भकार के प्रकरण में प्राप्त होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org