Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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३० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण वैदिक दर्शनों में उपादान एवं निमित्त का स्वरूप
__ वेदान्ती कार्य-कारण सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए उपादान और निमित्त कारण से कार्य की निष्पित्ति स्वीकार करते हैं। यह सदानन्दयोगीकृत वेदान्तसार के निम्न कथन द्वारा प्रमाणित होता है
"शक्तिद्वयवदज्ञानोपहितं चैतन्यं स्वप्रधानतया निमित्तं स्वोपाधिप्रधानतयोपादानं च भवति। यथालूता तन्तुकार्य प्रति स्वप्रधानतया निमित्तं।
स्वशरीरप्रधानतयोपादानं च भवति।।'६९
अर्थात् दो शक्तियों की अज्ञानोपाधि से युक्त चैतन्य अपने प्राधान्य से निमित्त कारण तथा अपनी उपाधि के प्राधान्य से उपादान कारण होता है।जैसे- एक ही मकड़ी जालरूप कार्य के प्रति चैतन्य के प्राधान्य से निमित्त कारण है तथा अपने शरीर के प्राधान्य से उपादान कारण भी है, उसी भाँति अज्ञानोपाधि युक्त आत्मा चैतन्य की प्रधानता से समस्त प्रपंच (संसार) का निमित्त कारण तथा अज्ञान के प्राधान्य से उपादान कारण है।
इस प्रकार वेदान्तियों ने ब्रह्म को उपादान और निमित्त कारण रूप स्वीकार करके उससे जगदुत्पत्ति रूपी कार्य माना है।
नैयायिक समवायी, असमवायी और निमित्त रूप से कारण के तीन रूप स्वीकार करते हैं"तच्च कारणं त्रिविधम्। समवायि-असमवायि-निमित्त-भेदात्।३०
कार्य के मूलभूत कारण अर्थात् उपादान कारण को ही वे समवायिकारण मानते हैं, जैसे- घट का मिट्टी। असमवायिकारण को वे समवायिकारण पर निर्भर मानते हैं। अतः असमवायिकारण भी 'उपादान कारण' ही है। इस प्रकार समवायिअसमवायि कारणों को उपादान कारण का ही भेद माना जा सकता है। तीसरा निमित्त कारण है जो वेदान्त में स्वीकृत निमित्त कारण के समान ही है। इस प्रकार न्यायदर्शन में प्रतिपादित समवायी आदि कारणत्रय को उपादान और निमित्त के भेदों में विभक्त किया जा सकता है।
सांख्यदार्शनिक भी सृष्टि के सर्जन में उपादान और निमित्त रूप में कारण को स्वीकार करते हैं। वाचस्पति मिश्र ने सांख्यकारिका की २१ वीं कारिका पर
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