Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय १७ तन्द्रव्य और अन्य दव्य कारण- पटादि कार्य की उत्पत्ति में तन्तु आदि तत्द्रव्य कारण होते हैं तथा वेमादि तद् अन्य द्रव्य कारण माने गए हैं। जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य पर मल्लधारी हेमचन्द्र की वृत्ति में स्पष्ट किया गया है"तस्यैव जन्यस्य पटादेः सजातीयत्वेन संबंधि द्रव्यं तन्वादि तद्रव्यम्, तच्च तत् कारणं च तत्द्रव्यकारणम्, तथा यत् तद्विपरीतं तदन्यद्रव्यकारणं जन्यपटादिविजातीयं वेमादीत्यर्थः १२८
निमित्त और नैमित्तिक कारण- विशेषावश्यक भाष्य एवं उसकी वृत्ति में निमित्त-नैमित्तिक शब्दों का प्रयोग क्रमश: उपादान और निमित्त का वाचक प्रतीत होता है। वहाँ तन्तुओं को पट का निमित्त कारण तथा वेमादि को नैमित्तिक कारण बताया गया है। यथा- 'तत्र कार्यात्मन आसन्नभावेन जनकं निमित्तं यथा- पटस्यैव तन्तवः तद्व्यतिरेकेण पटस्यानुत्पत्तेः, तच्च तत् कारणं च निमित्तकारणम्, यथा च तन्तुभिर्विना पटो न भवति तथा तद्गताऽऽतानवितानादिचेष्टाव्यतिरेकेणापि न भवत्येव तस्याश्च तच्चेष्टाया वेमादि कारणम्, अतो निमित्तस्येदं नैमित्तिकमिति। २१
समवायी और असमवायी कारण- एकीभाव से अपृथक् गमन को समवाय कहा गया है तथा पट की उत्पत्ति में तन्तुओं को समवायी कारण और तन्तुसंयोग को असमवायी कारण प्रतिपादित किया गया है। यथा- 'समवायीत्यादि 'सम्' एकीभावे, 'अवशब्दोऽपृथक्त्वे', 'अय् गतौ' 'इण् गतौ' वा। ततश्चैकीभावेनापृथग् गमनं समवायः संश्लेषः स विहाते येषां ते समवायिनस्तन्तवः, यस्मात् तेषु, पट: समवैतीति, समवायिनश्च ते कारणं च समवायिकारणम्। तन्तुसंयोगास्तु कारणरूपद्रव्यान्तरधर्मत्वेन पटाख्यकार्यद्रव्यान्तरस्य दूरवर्तित्वादसमवाधिनस्त एव कारणसमवायिकारणम्। २०
भाष्य में कथंचित् वेमादि को समवेत न होने से असमवायीकारण भी कहा
गया है
समवाइकारणं तंतवो पडे जेण ते समवयंति।
न समेइ जओ कज्जे वेमाइ तओ असमवाई।।१ षट्कारकों की कारणता- विशेषावश्यक भाष्य में षट् कारकों को भी कारण के रूप में प्रतिपादित किया गया है। ‘क्रियाजनकत्वं कारकत्वम्' अर्थात् जिसमें क्रिया की जनकता (उत्पादकता) पायी जाती है, वह कारक कहलाता है। इस प्रकार कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण- ये सब कारक कहे
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