________________ मा के दर्शन गण को ढक लेता है प्रकट नहीं होने देता वह दर्शनावरण कर्म कहलाता है। जैसे राजा के महल के बाहर बैठा द्वारपाल राजा के दर्शन नहीं होने देता। जो कर्म जीवों को सुख-दुख का वेदन करवाता है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। जैसे शहद लपेटी तलवार को चाटने पर शहद चाटने से मीठी लगने पर सुख और जीभ कट जाने से दु:ख होता है। साता और असाता इसके दो भेद होते हैं। जो कर्म जीवों को मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है। जैसे मद्य पुरुषों को मोहित कर देती है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं। 1. दर्शन मोहनीय. 2. चारित्र मोहनीय। जो आत्मा में सम्यक्त्व गुण का घात करता है वह दर्शन मोहनीय कर्म है। इसके तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति। जो आत्मा के चरित्र गुण का घात करता है वह चारित्र मोहनीय कर्म है। इसके मुख्यतया दो भेद हैं कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय। कषाय वेदनीय के 16 और अकषाय वेदनीय के 9 भेद हैं, ऐसे कुल 25 भेद हो जाते हैं। जो कर्म जीव को निश्चित समय तक एक ही शरीर में रोके रहता है वह आयु कर्म कहलाता है। जैसे किसी कारागार में निश्चित समय के लिये कैदी को रोककर रखा जाता है। इसके चार भेद हैं नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु। जो कर्म जीव को छोटे बड़े शरीरांगोपांगादि प्रदान करता है उसे नाम कर्म कहते हैं। जैसे कोई चित्रकार तरह तरह के चित्रादि बनाता है। इसके मुख्य रूप से 42 भेद हैं और प्रभेद करने पर इसके 93 भेद हो जाते हैं। जो कर्म जीव को छोटे - बड़े कुल में उत्पन्न कराता है वह गोत्रकर्म कहलाता है। जैसे कुम्हार छोटे बड़े बर्तन आदि बनाता है। इसके दो भेद हैं उच्चगोत्र और नीचगोत्र। जो कर्म शुभकार्यों में विघ्न उत्पन्न करता है वह अन्तराय कर्म कहलाता है। जैसे कोई मुनीम किसी सेठ को दान देने से रोकता है। इसके पाँच भेद हैं। दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य। इस प्रकार आठों कर्मों के प्रभेदों का योग करें तो 148 भेद हो जाते हैं। इसी से प्रकृतिबन्ध के 148 भेद हो जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org