________________ पार हो पायेंगे। यदि हम नाव में ही बैठे रहेंगे अथवा ऐसा विचार करेंगे कि जब उतरना ही है तो फिर नाव में चढ़े ही क्यों? तो हम कभी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। इसलिये किनारे तक पहुँचने के लिये हमें पंचपरमेष्ठी रूपी नैया में सवार होना ही पड़ेगा। और जब किनारे पर पहुँचेंगे तो नैया को छोड़ना ही होगा तभी मुक्ति सम्भव है। ____ पाँचों परमेष्ठियों के स्वरूप का चिन्तन करना ही सावलम्ब धर्म्यध्यान कहलाता है। इनके ध्यान करने से अशुभ कर्मों की विशेष रूप से निर्जरा होती है। आचार्य देवसेन स्वामी ने इस विषय पर विशेष ध्यान दिया कि - निरालम्बन ध्यान गृहस्थ के संभव नहीं है और यदि कोई दुराग्रही इसको स्वीकार नहीं करता है तो वह निश्चित ही जिनेन्द्रदेव की वाणी पर श्रद्धान नहीं करता है। अतः पंच परमेष्ठियों का आलम्बन लेकर धर्म्यध्यान का अभ्यास अवश्य करना चाहिये। ऐसा करने से चित्त की एकाग्रता में निरन्तर वृद्धि होती है। धर्म्य ध्यान किनके सम्भव है? इस विषय में आचार्यों के भिन्न-भिन्न कथन द्रष्टव्य हैं। ध्यान शतक में आचार्य माघनन्दि अप्रमत्तसंयत से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक धर्म्यध्यान को स्वीकार किया है।' धवलाकार आचार्य वीरसेनस्वामी का स्पष्ट उल्लेख है कि असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक धर्म्यध्यान संभव है। आचार्य जिनसेन स्वामी के अनुसार 4थे 5वें 6ठे गुणस्थान में ही धर्म्यध्यान होता है।' आचार्य शुभचन्द्र ने प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत गुणस्थानों में ही धर्म्यध्यान प्ररूपित किया है। आचार्य ब्रह्मदेवसूरि चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक धर्म्यध्यान को स्वीकार करते हैं।' ध्यान शतकम् 63 धवला पु. 13 पृ. 74 आदिपुराण 21/155-156 ज्ञानार्णव 28/25 बृ. द्र. सं. गा. 57 टीका 285 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org