________________ पञ्चम परिच्छेद : अन्य दर्शनों में आत्मतत्त्व लगभग सभी भारतीय दर्शनों में आत्मतत्त्व का विवेचन किया है। जितने भी ऋषि-मुनि हुए उन्होंने अपने प्रयत्नों से आत्मा का अन्वेषण किया और उस आत्म साक्षात्कार से जो ग्रहण किया था उसको अपने विचारों से अपने ग्रन्थों में प्ररूपित कर दिया। सभी आचार्यों के परस्पर भेद होने से आत्मा का स्वरूप भिन्न-भिन्न विवेचित किया गया। उन सभी दर्शनों में विश्लेषित आत्म सिद्धान्तों का कैसा साम्य है? क्या विशेषता है? यह यहाँ विवेचित करता हूँचार्वाक दर्शन - चार्वाक दर्शन के अनुसार शरीर में जो चैतन्य परिणाम उत्पन्न होता है वह पञ्चभूतों में से 4 महाभूतों का आकार रूप से जैसी इच्छा होती है वैसे उत्पन्न कर लेता है, यह किसी विशिष्ट हेतु के द्वारा उत्पन्न नहीं होती है। यथा दो या चार पदार्थों के सम्मेलन से मादक शक्ति का अभाव होने पर भी मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है, वैसे ही पृथ्वी आदि भूतों के सम्मिश्रण होने पर चैतन्य का अभाव होने पर भी यदृच्छा से चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। और भी कहते हैं कि जैसे बरसात के मौसम में मेढ़क, कीट-पतंगे स्वतः ही उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही मनुष्यादि जीवों में चैतन्य अनायास ही उत्पन्न हो जाता है। इनके अनुसार शरीर ही आत्मा है, इसके नष्ट होने पर ही आत्मा (चैतन्य शक्ति) भी स्वयमेव नष्ट हो जाती है। ये इनका देहात्मवाद कहलाता है। कुछ चार्वाक आचार्य मन को ही आत्मरूप मानते हैं, क्योंकि मन के बिना शरीर कार्य करने में समर्थ नहीं है और मन ज्ञानदाता है। कुछ इन्द्रियों को आत्मस्वरूप स्वीकार करते हैं। कुछ प्राणों को, कुछ पुत्र को और कुछ लौकिक पदार्थों को आत्मा स्वीकारते हैं। मतैक्य न होने से सामान्य तौर पर भौतिकवाद को ही स्वीकार किया गया है। शरीर के नष्ट होने पर ही आत्मा मुक्त हो जाती है। बौद्ध दर्शन - बौद्ध दर्शन में आत्मा का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया है। भगवान् बुद्ध से पूछने पर वह सर्वदा मौन ही रहे। रीज डेविड्स और ओल्डनवर्ग आदि महोदयों ने अत्यधिक शोध करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि आत्मा नहीं है। 409 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org