Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 418
________________ का उपभोग हो जाने से संस्कार के विनाश होने से शरीर भी नष्ट हो जाता है और पुरुष को मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। अद्वैत (शाङ्कर वेदान्त) - इनके अनुसार एकमात्र तत्त्व है वह ब्रह्म (आत्मा) ही है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी अवस्तु, अज्ञान अथवा माया कहा जाता है। ब्रह्म के अतिरिक्त सभी पदार्थ असत् रूप हैं। यहाँ दो भेद हैं ब्रह्म के - चैतन्यरूप और मायारूप उपाधि। इन दोनों से ही आकाशादि सृष्टि उत्पन्न होती है। यहाँ विज्ञानमय कोष से आवृत्त चैतुन्य ही जीव कहा गया है। इसके व्यापक, निष्क्रिय, विभु, सर्वस्थ होने से गमनागमन आदि नहीं होते हैं। अतएव यह विज्ञानमय कोष ही चैतन्य की सहायता से इस लोक से परलोक को गमन करता है। यही जीव कर्ता, भोक्ता. सखी. द:खी होता है। इसमें जीवात्मा का परमात्मा से तादात्म्य है। उपाधि के बल से भेद कल्पना है। इसी उपाधि का विनाश हो जाने पर जीव स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सभी दर्शनों के समालोचन से यह ज्ञात है कि चार्वाक मतावलम्बी भौतिकीय आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करते हैं। वे आत्मा की उत्पत्ति किसी सद्भूत पदार्थ के द्वारा ही स्वीकार करते हैं। इस संसार को सत् रूप मानते हुए स्वाभाविक, प्राकृतिक और वास्तविक मानते हैं। बौद्ध पञ्चस्कन्धात्मक आत्मस्वरूप वर्णित करके आत्मा का कोई भी स्वरूप निश्चित नहीं कर सके हैं। उनका प्रतीत्यसमुत्पाद केवल विभिन्न प्रकार के प्रश्नों का . आलोडन-विलोडन करते हुए मन को कल्पित वाग्जाल के समान प्रतीत होता है, क्योंकि जब दुःख, सुख, जन्म, मरण, बन्ध, मोक्षादि का आधारभूत कुछ भी नहीं ठहरता है, तब सुख, दु:ख का भोग कौन करेगा? वैदिक मत में आत्मतत्त्व का वर्णन बहुदेववाद रूप अथवा एक ईश्वरवाद रूप में स्वीकार किया जाता है। इनमें देवों में ही आत्मा की अथवा परमात्मा की कल्पना दिखाई देती है। उपनिषदों में यह देखा जाता है कि महर्षि रात-दिन तत्त्वों के अनुसन्धान अथवा गवेषणा में संलग्न रहते थे। इनकी समन्वय प्रवृत्ति से यह निश्चित होता है कि यथार्थ में 412 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448