Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

Previous | Next

Page 424
________________ विरुद्ध पक्षों में से किसी एक पक्ष के द्वारा जानने में प्रवृत्त होता है तब उसे नय कहते हैं, और जब दोनों पक्षों के द्वारा जानने का प्रयत्न करता है अथवा धर्म-धर्मी का भेद किये बिना वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करता है, तब श्रुतज्ञानात्मक प्रमाण अथवा स्याद्वाद कहलाता है। आचार्य देवसेन स्वामी ने नयों का वर्णन करते हुए लिखा है- नयों के मूल दो भेद हैं, जो नय लोक में पर्याय को गौण करके द्रव्य को ही ग्रहण करता या जानता है वह द्रव्यार्थिक नय कहा गया है जो द्रव्यार्थ के विपरीत है अर्थात् द्रव्य को गौण करके पर्याय को ही जानता है वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इनमें द्रव्यार्थिक नय के 10 और पर्यायार्थिक नय के 6 भेदों के स्वरूप को भी बतलाया है। तत्पश्चात् नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नय के स्वरूप और भेदों का वर्णन सोदाहरण प्रस्तुत किया है। इनके पश्चात् उपनय के तीन भेद हैं- सद्भूतव्यवहार नय, असद्भूतव्यवहार नय, उपचरितासद्भूतव्यवहार नय। इनमें भी सद्भुतव्यवहार नय के दो भेद, असदुद्भूतव्यवहार नय और उपचरितासभृतव्यवहार नय के तीन-तीन भेद स्वरूप सहित वर्णित किये हैं। इसके बाद नयों और उपनयों के विषयों का वर्णन किया है। सभी नयों का वर्णन करने के पश्चात् वे अध्यात्मभाषा के नयों का वर्णन करते हुए लिखते हैं- नयों के मूल दो भेद हैं- एक निश्चय नय और दूसरा व्यवहार नय। उसमें निश्चय नय का विषय अभेद है और व्यवहार नय का विषय भेद है। उनमें से निश्चय नय के दो भेद हैं- शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय। इनमें भी शुद्ध निश्चय नय का विषय शुद्धद्रव्य है तथा अशुद्ध निश्चय नय का विषय अशुद्ध द्रव्य है। नयों के स्वरूप को भली-भाँति जानकर के नयों का प्रयोग करके जो अपने कथनों की प्रवृत्ति करता है वास्तविकता में वही विद्वान् है। नय, प्रमाण का ही एक अंश . है यह हम पहले भी समझ चुके हैं। नय को समग्र रूप से प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ी कला है। उसी प्रकार नयों का योजन विभिन्न स्थानों में भी करना चाहिये। इसीलिए आचार्य देवसेन स्वामी ने एक अलग ही विषय प्रस्तुत किया है, किस-किस द्रव्य में किस-किस नय की अपेक्षा कौन-कौन स्वभाव पाया जाता है। 418 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448