Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 435
________________ द्वितीय परिच्छेद : विभिन्न संघों की उत्पत्ति वर्तमान में जैनधर्म में बहुसंघों का प्रचलन हो रहा है। जो भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् के हैं। ई.पू. 5वीं शती में भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ। अनन्तर 5वीं शती ई.पू. में भद्रबाहु स्वामी के समय तक एक ही निर्ग्रन्थ संघ का प्रचलन चल रहा है। दुर्भाग्य से भद्रबाहु स्वामी के समय 12 वर्ष का दुर्भिक्ष आने पर उनकी समाधि के पश्चात् श्वेताम्बर संघ तथा दिगम्बर संघ में निर्ग्रन्थ संघ के दो भाग हो गये। ये दोनों संघ कुछ समय तक अविच्छिन्न रूप से चलते रहे, इसके पश्चात् इन संघों में भी मतभेद होना प्रारंभ हो गये। जिससे इन संघों के भी उत्तर संघ स्थापित हुए। कालान्तर में निर्ग्रन्थ अर्थात् दिगम्बर संघ से काष्ठासंघ, द्रविड़संघ, माथुरसंघ आदि संघों की उत्पत्ति हुई। इन संघों के साधु यद्यपि एकान्त-अचेल मुक्तिवादी थे,, तथापि इन्होंने अपने सिद्धान्तों में कछ ऐसा परिवर्तन कर लिया कि इन्हें जैनाभास घोषित कर दिया गया तथा ईसा की पांचवीं शती के प्रारंभ में श्वेताम्बर श्रमण संघ से यापनीय संघ का आविर्भाव हुआ। यह दिगम्बरों के समान अचेललिंग तथा श्वेताम्बरों के समान सचेललिंग दोनों पर विश्वास करता था। यह संघ श्वेताम्बर आगमों में चर्चित स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि का पूर्ण समर्थक था। द्राविड़ संघ _ इन संघों के वर्णन करने में आचार्य देवसेन स्वामी ने सर्वप्रथम द्राविड़ संघ का कथन इस प्रकार किया है- विक्रम सम्वत् 526 में दक्षिण मथुरा नगर में आचार्य पूज्यपाद स्वामी का शिष्य वज्रनन्दि द्राविड़ संघ का उत्पन्न करने वाला हुआ। यह समयसारादि प्राभृतों का ज्ञाता और महान् पराक्रमी था। मुनिराजों ने सदोष होने के कारण सचित्त चनों को खाने से रोका, क्योंकि इसमें दोष होता. है, परन्तु वह न माना और बिगड़कर विपरीत रूप प्रायश्चित्त आदि शास्त्रों की रचना कर ली। उसके अनुसार बीजों में जीव नहीं होते हैं, कोई वस्तु प्रासुक नहीं है और मुनियों को खड़े-खड़े भोजन करने की विधि नहीं है। वह कोई सावध भी नहीं मानता था और गृहकल्पित अर्थ को भी नहीं गिनता था। उसने ऐसा उपदेश दिया कि मुनिजन यदि रोजगार करावें, खेती करावें, वसतिका बनवावें और जल में स्नान करें तो कोई दोष नहीं है। 429 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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