________________ विषय में सब श्वेताम्बरों के ही तुल्य हैं। उनमें शास्त्र में और तर्क में परस्पर और कोई भेद नहीं है' इस उल्लेख से यापनीय संघ के विषय में कई बातें मालूम हो जाती हैं और दूसरे संघों में भी जो भेद हैं, उनका पता लग जाता है। काष्ठासंघ इस संघ की उत्पत्ति को वर्णित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि- श्री वीरसेन स्वामी की परम्परा में आचार्य जिनसेन के शिष्य विनयसेन नामक मुनि के शिष्य कुमारसेन ने वि.सं. 753 में काष्ठा संघ की उत्पत्ति की। उनके शिष्य के विषय में दर्शनसार में इस प्रकार कहते हैं कि आसी कुमारसेणो णंदियडे विणयसेणदिक्खियओ। सण्णासभंजणेण य अगहियपणदिक्खओ जादो।।33 / / अर्थात् नन्दीतट नगर में विनयसेन मुनि के द्वारा दीक्षित हुआ कुमारसेन नाम का मुनि था। उसने संन्यास से भ्रष्ट होकर फिर से दीक्षा नहीं ली और मयूरपिच्छी को त्याग कर तथा चँवर (गौ के बालों की पिच्छी) ग्रहण करके उस अज्ञानी ने सारे बागड़ प्रान्त में उन्मार्ग का प्रचार किया। उसने स्त्रियों को दीक्षा देने का, क्षुल्लकों को वीरचर्या का, मुनियों को कड़े बालों की पिच्छी रखने का और रात्रिभोजन त्याग नामक छठे गुणव्रत का विधान किया। इसके सिवाय उसने अपने आगम, शास्त्र, पुराण और प्रायश्चित्त ग्रन्थों को कुछ और ही प्रकार के रचकर मूर्ख लोगों में मिथ्यात्व का प्रचार किया। इस तरह उस मुनिसंघ से बहिष्कृत, समय मिथ्यादृष्टि, उपशम को छोड़ देने वाले और रौद्र परिणाम वाले कुमारसेन ने काष्ठासंघ का प्ररूपण किया। माथुर संघ मथुरा में वि.सं. 953 में रामसेन नामकं मुनि ने माथुर संघ का प्रादुर्भाव किया। उसने यह उपदेश दिया कि मुनियों को न मोर की पिच्छी रखने की आवश्यकता है और .न ही बालों की उसने पिच्छी का सर्वथा ही निषेध कर दिया। उसने अपने और पराये . प्रतिष्ठित किये हुए जिनबिम्बों की ममत्व बुद्धि द्वारा न्यूनाधिक भाव से पूजा वंदना करने, . मेरा गुरु यह है दूसरा नहीं है इसप्रकार के भाव रखने, अपने संघ का अभिमान करने 431 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org