________________ प्रथम परिच्छेद : जिनकल्प और स्थविरकल्प जिनेन्द्र भगवान् ने श्रमण परम्परा में दो धर्मों का निरूपण किया है। मुनिधर्म और श्रावकधर्म, इनके अलावा कोई भी तीसरा अन्य मार्ग अथवा धर्म नहीं है। जो शिथिलाचारी साधु अपने शिथिलाचार को छुपाने के लिए विभिन्न कल्पनाओं की रचना करते हैं और कहते हैं कि हम तो स्थविरकल्पी हैं, इसलिए हमको कंबल, दण्ड, वस्त्र, सोना आदि रखने में कोई दोष नहीं है। जबकि उनके परिणाम संशय और मिथ्यात्व आदि से सहित होते हैं। उनको फटकार लगाते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि कंबल आदि रखना स्थविरकल्प नहीं बल्कि गृहस्थकल्प है, क्योंकि ये सब रखना तो गृहस्थों का कार्य है। साधुओं को तो सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग बताया गया है। यह परिग्रह तो सर्व पापों का कारण है, यह स्वर्ग और मोक्ष का कारण कैसे हो सकता? अर्थात् कभी नहीं हो सकता है। जो लोग जिनकल्प और स्थविरकल्प के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं तो उनको इनका वास्तविक स्वरूप बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि दुविहो जिणेहिं कहिओ जिणकप्पो तह य थविर कप्पो य। सो जिणकप्पो उत्तो उत्तम संहणणधारिस्स॥ अर्थात् भगवान् जिनेन्द्र ने जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसे दोनों प्रकार के मार्ग दिखलाये हैं। इनमें से जो उत्तम संहनन को धारण करने वाले महामुनि हैं, वे जिनकल्पी मुनि कहलाते हैं। इनके ही स्वरूप को और भी विशेष रूप से वर्णित करते हुए कहते हैं- ये महामुनि पैर में कांटा अथवा नेत्रों में धूलि पड़ जाने पर अपने हाथ से दूर नहीं करते। यदि कोई अन्य पुरुष निकाल देता है तो चुप रहते हैं। ये विपत्ति आने पर विषाद और दूर होने पर हर्ष न करते हुए दोनों अवस्थाओं मे समान भाव रखते हैं। ये महामुनि वर्षा ऋतु आने पर गमन बन्द करके 6 माह तक कायोत्सर्ग धारण करके निराहार एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं। वे जिनकल्पी मुनिराज ग्यारह अंग के पाठी, धर्म्य अथवा शुक्लध्यान में लीन, सर्वकषायों के त्यागी, मौन व्रती और गुफाओं आदि में रहते हैं। ये मुनिराज जिनकल्पी अर्थात् जिनेन्द्र के समान क्यों कहलाते हैं, इसका स्पष्टीकरण देते हुए 426 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org