________________ आर्त और रौद्र ध्यान के पश्चात् भद्र ध्यान जो अन्य किसी आचार्य ने वर्णित नहीं किया है, का वर्णन किया है। वह वास्तव में अपूर्व है। तत्पश्चात् धर्म्य और शुक्ल ध्यान का निरूपण किया है। यहां उनका आशय यह है कि गृहस्थ के धर्म्यध्यान की साधना सहज नहीं है, परन्तु वह आर्त-रौद्र ध्यान से पाप बंध का अर्जन करता है, उसको अपने सद्ज्ञान और भद्रध्यान से नष्ट करता है। इसके पश्चात् चारों ध्यानों के साथ भद्रध्यान का स्वरूप विशेष रूप से प्रदर्शित किया है। फिर आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान के भेदों का वर्णन करते हुए ध्याता, ध्येय और ध्यान का फल प्ररूपित किया है। इसमें ही विशेष रूप से एक शून्य ध्यान का वर्णन किया है जो बिल्कुल शुक्ल ध्यान की ही तरह निर्विकल्पक बताया है, जो अन्य किसी आचार्य के द्वारा प्ररूपित नहीं किया गया। जिसमें ध्यान, ध्येय और ध्याता का विकल्प नहीं है, किसी भी प्रकार का चिन्तन और धारणा का विकल्प नहीं है वह शून्य ध्यान है। शून्यता और शुद्धभाव में कोई अन्तर नहीं है। यहां शून्य ध्यान से तात्पर्य निर्विकल्पक समाधि है। ध्यानों को गुणस्थानों के अनुरूप ही वर्णित किया है। आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान तिर्यंच एवं नरक गति का कारण होने से हेय हैं। भद्र ध्यान और धर्म्य ध्यान स्वर्गादि की प्राप्ति एवं परम्परा से मोक्ष का कारण होने से तात्कालिक उपादेय हैं और शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण होने से परम उपादेय है, क्योंकि शक्ल ध्यान, ध्यान की सर्वोच्च कोटि है। ध्येय रूप पंच परमेष्ठियों का वर्णन करते हुए टीकाकार ने आचार्य परमेष्ठी के भिन्न 36 मूलगुणों का वर्णन किया है। दान के सन्दर्भ में आचार्य ने चार अधिकारों का वर्णन बड़ी सुन्दरता से किया है - दाता, पात्र, देने योग्य द्रव्य और देने की विधि। आचार्य ने पात्र के दो विशेष भेद किये हैं - वेदमय पात्र और तपोमय पात्र। यहाँ वेद से तात्पर्य सिद्धान्त-शास्त्र है। इसके पश्चात् पात्रदान का फल और महत्त्व, कुपात्रों को दान का फल, नहीं देने योग्य द्रव्य और आहार दान में ही चारों दानों को गर्भित करते हुए अच्छी प्रकार से आहार दान के महत्त्व का वर्णन किया है। अपने द्रव्य को किस प्रकार सदुपयोग में लगाना चाहिये, इसका भी उपदेश दिया / 421 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org