________________ यह जगत् अनन्तधर्मात्मक है। अतः किसी एक पक्ष के द्वारा समस्त जगत् का विवेचन नहीं किया जा सकता है। नैयायिकों के अनुसार समस्त दुःखों का अभाव होना ही मोक्ष है। इसमें वे कहते हैं कि मन जो प्रवृत्तिविधायक है, उसके संयोग होने से आत्मा परमात्मा को प्राप्त कैसे हो सकती है? अतः आत्मा की मुक्ति होने पर संसार में कोई विशेष स्थिति नहीं होती है। मीमांसकों के आत्मविषयक विवेचन से यही कहा जा सकता है कि आत्मा के जड़त्व होने से स्वर्ग से भिन्न अन्य किसी मोक्ष का अभाव होने से यह दर्शन मोक्षत्व का नहीं अपितु सांसारिकत्व का ही विवेचन करता है। इसी प्रकार सांख्यदर्शन में भी सत्त्वगुण रूप बुद्धि के मोक्ष में होने से जीवात्मा ज्ञस्वरूप को प्राप्त नहीं होता अपितु प्रकृतिपराङ्गमुख होते हुए भी उससे संश्लिष्ट ही रहता है। - अद्वैतवेदान्त में तो सभी ब्रह्मरूप ही है, अतः माया और जगत् का असत्रूप होने से यदि इन दोनों में संश्लिष्ट हो तो इसमें कोई भी हानि नहीं है, किन्तु यह वास्तविकता नहीं है, कि यह जगत् ब्रह्मस्वरूप है। - इस प्रकार इन सभी दर्शनों में आत्मा और मोक्ष का आंशिक स्वरूप का ही विवेचन किया गया है। अतएव इन सभी दर्शनों में से किसी में भी पूर्णता प्रतीत नहीं होती है। 413 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org