________________ चतुर्थ परिच्छेद : परम लक्ष्य शुद्धात्मा सिद्ध परमेष्ठी परम आराध्य परम ध्येय शुद्धात्मतत्त्व सिद्ध परमात्मा का स्वरूप वर्णित करते ए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि तिहुवणपुज्जो होउं खविउ सेसाणि कम्मजालाणि। जायइ अभूदपुव्वो लोयग्गणिवासिओ सिद्धो।' अर्थात् आचार्य कहते हैं कि जो पञ्चपरमेष्ठी की नि:स्वार्थ भाव से भक्ति करते हैं उनको अरिहन्त अवस्था में तीनों लोकों का पूज्य होकर, शेष कर्ममलों का विनाश करके अभूतपूर्व लोकाग्र का निवासी सिद्ध पद प्राप्त हो जाता है। और आगे कहते हैं कि वह जीव गमनागमन से रहित, परिस्पन्दन रहित अव्याबाध सुख में तल्लीन सुस्थिर परम अष्ट गुणों से संयुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है। वह निश्चयनय से नहीं अपितु निश्चय से सिद्ध होता है। अब वह कभी असिद्ध नहीं होगा। आचार्य और भी कहते हैं कि वह सिद्ध परमात्मा इन्द्रिय के क्रम से रहित होकर समस्त लोक और अलोक को, अनन्त गुण और पर्यायों से संयुक्त समस्त रूपी और अरूपी द्रव्यों को जानता और देखता है। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि वह समस्त पदार्थों को जानता और देखता है परन्तु उनमें राग-द्वेष नहीं करता है। वह सब कुछ जानकर भी मौन रहता है। वह मौन रहते हुए मात्र आत्मचिन्तन करता है, इसलिये सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है। मुनि अथवा योगी मौन होते हैं, मूक नहीं होते। जो बोलने की आकांक्षा रखता हो, जो बोलने की भावना रखता हो, फिर भी बोल नहीं पा रहा हो, इसका नाम मौन नहीं मूक है। जो बोलने की सामर्थ्य रखने के उपरान्त भी अपने योग की निर्मलता के लिये, अपने कषायों के शमन के लिये जो वचन-वृत्ति का विसर्जन कर देते हैं, त्याग कर देते हैं, उसका नाम मौन है। इसी को वचन गुप्ति कहा जाता है। इसी प्रकार तीनों गुप्तियों का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए अपने परम लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं। जिन्होंने सिद्धि को प्राप्त किया है, उन्होंने सारी अवस्थाओं का पालन किया था, वे तत्त्वसार गा. 67 407 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org