________________ 2. एकत्ववितर्कवीचार 1. पृथक्त्ववितर्कवीचार 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती 4. व्युपरतक्रियानिवृत्ति किन्तु आचार्य जिनसेन स्वामी ने शुक्लध्यान के दो भेद किये हैं-शुक्ल ध्यान, परम शुक्ल ध्यान। इसमें भी पृथक्त्ववितर्कवीचार और एकत्ववितर्कवीचार ये दो शुक्ल ध्यान एवं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति ये दो परम शुक्ल ध्यान।' चारित्रसार में भी इसी प्रकार ही वर्णन किया गया है। 1., पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान - आचार्य देवसेन स्वामी ने प्रथम शुक्ल ध्यान के तीन भेद किये हैं-पृथक्त्व, सवितर्क और सवीचार।' एक द्रव्य को छोड़कर दूसरे द्रव्य का चिन्तन करना, एक गुण को छोड़कर दूसरे गुण का चिन्तन करना और एक पर्याय को छोड़कर दूसरे पर्याय का चिन्तन करना सपृथक्त्व कहलाता है। जिस ध्यान में भावश्रुत ज्ञान के आलम्बन से अत्यन्त शुद्ध आत्मा अथवा शुद्ध अनुभूति स्वरूप आत्मा का स्वरूप आत्मा के ही भीतर प्रतिभासमान होता हो उसको सवितर्क ध्यान कहते हैं। वितर्क शब्द का अर्थ है श्रुतज्ञान, जो ध्यान श्रुतज्ञान सहित हो उसको सवितर्क ध्यान कहते हैं। जो ध्यान एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को बदल जाय, एक शब्द से होने वाला चिन्तन दूसरे शब्द से होने लगे और एक योग से होने वाला चिन्तन दूसरे योग से होने लगे, उसको संक्रम या संक्रान्ति या विचार कहते हैं। ये तीनों बातें पहले शुक्ल ध्यान में होती हैं, इसलिये वह पृथक्त्व सवितर्क सवीचार शुक्ल ध्यान कहलाता है। इस ध्यान को दृष्टान्त से समझाते हुए आचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार किसी वृक्ष को काटने के लिये कुल्हाड़ी तीक्ष्ण न हो, पथरी कुल्हाड़ी हो तो उस वृक्ष के काटने में बहुत देर लगती है, उसी प्रकार इस प्रथम शुक्ल ध्यान में कर्मों का नाश करने में बहुत देर लगा करती है। हरिवंशपुराण 56/53-54 चारित्रसार 203/4 भा. सं. गा. 643 वही गर. 644-646 वही गा. 647 287 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International