________________ चतुर्थ परिच्छेद : चार्वाक मत की समीक्षा चार्वाक के अन्य नाम जडवाद अथवा लोकायत भी प्रचलित हैं। इनके अनुसार मन तथा चैतन्य की उत्पत्ति पृथ्वी आदि जड पदार्थों से होती है। यह मत मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को ही स्वीकार करता है। इसीलिये चार्वाक मत वाले कहते हैं कि जब कोई जीव होता ही नहीं है तो फिर किसको पुण्य लगता है और किसको पाप लगता है? कौन स्वर्ग जाता है और कौन नरक जाता है? वे कहते हैं कि जिस प्रकार किसी पात्र में गुड़ और धाय के फूल मिलाकर रख देने से उसमें मद्य की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि और वाय आदि भूतों के परस्पर मिल जाने से चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है।' इस प्रकार इन पञ्चभूतों से मिलकर चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है और मर जाने से पञ्चभतों का अपने-अपने रूप में पहँचने से चैतन्य शक्ति सहित जीव की सत्ता भी समाप्त हो जाती है। शरीर पञ्चभूतमय है शरीर के कार्य भी पञ्चभूत रूप हैं और शरीर के गुण सभी पञ्चभूत रूप हैं। वास्तव में चैतन्य शक्ति अथवा जीव पदार्थ कोई अलग-अलग नहीं है। इस प्रकार जीव का अभाव सिद्ध होता है। जब कोई जीव, स्वर्ग, नरक, पुण्य और पाप आदि का सद्भाव ही नहीं तो फिर खाओ, पीओ और मौज करो, क्योंकि मरने से मुक्ति ही मिल जाती है। चार्वाक परम्परा में कहते हैं यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।। परन्तु इनका यह कहना बिल्कुल असंगत है, क्योंकि एक भट्टी पर हाण्डी रखकर उसमें पानी और पत्थर रखकर पकाने से कोई भी चैतन्य शक्ति समन्वित जीव उत्पन्न नहीं होता; जबकि वहाँ पाँचों भूत एक साथ होते हैं। अतः उनका यह कथन सर्वथा गलत है कि पञ्चभूतों के मिलने से जीव की उत्पत्ति होती है। पञ्चभूत अचेतन हैं, वे जीव की उत्पत्ति में उपादान कारण नहीं हो सकते। गोबर में बीछू उत्पन्न हो जाते हैं परन्तु गोबर उन जीवों का उपादान कारण नहीं है, वह तो मात्र शरीर का कारण हो सकता है। यह शरीर भी तभी तक काम करता है भा. सं. गा. 172-173 385 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org