________________ निष्कर्ष भारत धर्मनिरपेक्ष देश होने के कारण विभिन्न धर्म, दर्शन और सम्प्रदायों का समूह है। प्रत्येक दर्शन के सिद्धान्त पृथक्-पृथक् हैं। समस्त दार्शनिकों अथवा मत प्रवर्तकों का मुखिया आदिब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव का महामोही और मिथ्यात्वी पौत्र मरीचि पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। उसने ऐसे विचित्र दर्शन का प्रवर्तन किया कि जिससे कुछ सिद्धान्तों के परिवर्तन से अनेक मतों का प्रवर्तन हो गया। आचार्य देवसेन स्वामी के अनुसार मरीचि सभी मतों का साक्षात् प्रणेता नहीं है, उन मतों में कुछ उतार-चढ़ाव होते रहे और विभिन्न मत प्रचलित हो गये। इनमें सिद्धान्तों का बीज मरीचि का ही है और ये सभी एकान्त को पुष्ट करने वाले होने से सदोष कहलाये। अतः जैनाचार्यों ने स्याद्वाद से इन सभी मतों की समीक्षा की। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार मरीचि सांख्य और योग का प्ररूपक है, जबकि सांख्य के प्रणेता कपिल और योग के प्रणेता पतंजलि हैं, जो ऋषभदेव के तो काफी वर्षों बाद उत्पन्न हुए हैं। उन एकपक्षी मिथ्यात्वी मतों को आचार्य देवसेन स्वामी ने भी पांच भेदों में विभक्त किया है। विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान। इन पांचों के पूर्वपक्ष को प्रस्तुत करके उनकी सम्यक् समीक्षा की है। इन मतों की उत्पत्ति, उत्पत्तिकर्ता, उनका पालन करने का फल और उनकी संक्षेप में समीक्षा अच्छी प्रकार से की है। इसी संदर्भ में श्राद्धों को पिण्डदान देना, गोमांस भक्षण, गोयोनि वन्दना आदि का तर्कयुक्त समीक्षण करके इनको विपरीत मिथ्यात्व के अन्तर्गत वर्णित किया है। आचार्य देवसेन स्वामी ने श्वेताम्बर मत को संशय मिथ्यात्वी कहते हुए उनके सग्रन्थ लिंग से मोक्षप्राप्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति को और अन्य मान्यताओं को युक्ति संगत तर्कों द्वारा खण्डन करके समीक्षा की है। मस्करीपूरण को अज्ञान मिथ्यात्वी बताते हुए उसके सिद्धान्तों का भी समीक्षात्मक खण्डन किया है। आचार्य ने विपरीत मिथ्यात्व के अन्तर्गत तीर्थजल स्नान से आत्मशुद्धि, मांस भक्षण को धर्म और मांस भक्षण कराने से पितरों को तृप्ति तथा गोयोनि वंदना को वर्णित करके उनमें व्याप्त दोषों का निराकरण करके इन मिथ्यात्वों को दूर करने का उपदेश दिया। इन विपरीत मान्यताओं में आश्चर्य प्रकट करते हुए आचार्य कहते हैं कि इनके मानने वाले भ्रान्तिमय तर्कों को प्रस्तुत करके स्वयमेव पाप का बंध करते हैं और अन्य लोगों को भी भ्रमित करते हैं। 390 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org