Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

Previous | Next

Page 400
________________ अन्य आचार्यों की अपेक्षा आचार्य देवसेन स्वामी ने तत्त्व के भिन्न प्रकार से दो भेद किये हैं - स्वगत तत्त्व और परगत तत्त्व। उनके अनुसार स्वगत तत्त्व निजात्मा और परगत तत्त्व सभी जीवों के आश्रयभूत पञ्च परमेष्ठी हैं। कोई भी जीव हो उसके लिये स्वतत्त्व तो निजात्मा ही होती है, परन्तु यहाँ पञ्चपरमेष्ठी को परगत तत्त्व कहा है, तो यहाँ विचारणीय यह है कि पञ्च परमेष्ठी वन्दनीय हैं, पूजनीय हैं फिर भी जीव की स्वात्मा से तो भिन्न ही हैं। वे सामान्य रूप से भिन्न नहीं हैं, अत्यन्त भिन्न हैं। उनका चतुष्टय मेरे चतुष्टय से सर्वथा पृथक् है और उनका स्वभाव सम्बन्ध अपनी आत्मा से नहीं है। उनसे जीव का सम्बन्ध मात्र श्रद्धा-श्रद्धेय का है न कि अविनाभाव। अतः पञ्चपरमेष्ठी परगत तत्त्व प्ररूपित किये हैं। परमेष्ठी हमारे आराध्य हैं, परन्तु साध्य तो हमारी शुद्ध निजात्मा ही है। परमेष्ठी साध्य तक पहुँचने के लिये साधन हैं तो साधन हमसे पृथक् है, इसलिये साध्य को प्राप्त करने लिये साधन को दूर से ही छोड़ना पड़ता है। जैसे नदी पार करने के लिये नाव साधन है। किनारे पर पहुँचते ही नाव का त्याग कर दिया जाता है, क्योंकि नाव में बैठे रहेंगे तो किनारे को प्राप्त कैसे कर पायेंगे। वस्तुतः संसार में उपादेय क्या है? पञ्चपरमेष्ठी। पञ्चपरमेष्ठी में अधिक उपादेय कौन है? अरिहन्त और सिद्ध। इन दोनों में भी अधिक उपादेय कौन है? सिद्ध। क्या सिद्ध परमेष्ठी ही सर्वथा उपादेय हैं? हाँ जीव के दर्पण हैं। इनमें जीव का स्वरूप दिखाई देता है, इसलिये ये तो साधन हैं। वास्तविकता में साध्य और सबसे ज्यादा उपादेय प्राणी की निजात्मा ही है। अत: आचार्य देवसेन स्वामी ने स्वगत तत्त्व निजात्मा और परगत तत्त्व पञ्चपरमेष्ठी बताये हैं, वे युक्ति संगत भी हैं। मोक्ष का इच्छुक जीव पहले परगत तत्त्व परमेष्ठी का ध्यान करके अभ्यास . करता है, फिर अभ्यस्त होने पर स्वमत तत्त्व टंकोत्कीर्ण, ज्ञायकस्वभावी, परम पारिणामिक निजात्मा को ही ध्याता है, तभी उसको निज परमात्म तत्त्व की प्राप्ति होती तत्त्वसार गा. 3 394 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448