________________ हटाना ही होगा तभी अनन्त ज्ञानादि शक्तियाँ प्रकट होंगी। अतः हमें शरीरादि पुद्गलों की चिन्ता न करके आत्मशक्ति के विषय में ही चिन्तन करना चाहिये, क्योंकि आत्मतत्त्व ही सब कुछ है। जैसे कोई कहता है कि ज्योति दीपक में है या ज्योति दीपक है? तो आचार्य कहते हैं कि ज्योति बिना दीपक नहीं, दीपक बिना ज्योति नहीं है। अतएव आत्मा ही दीपक है, आत्मा ही ज्योति है, इसलिये आत्मा स्वयं ज्ञाता है, स्वयं ज्ञेय है और स्वयं ज्ञानी है वही परम ब्रह्म है। __ आगे आचार्य कहते हैं कि निश्चयनय के आश्रय से जीव में जो आत्मतत्त्व है, वहीं ज्ञान है और जो ज्ञान है, वही दर्शन है, वही चारित्र है और वही शुद्ध चेतना भी है। राग और द्वेष रूप दोनों भावों के नष्ट होने पर अत्यन्त शुद्ध आत्मस्वरूप निजभाव के उपलब्ध होने पर योग-शक्ति से योगियों के परम आनन्द शोभायमान होता है। आचार्य कहते हैं कि आत्म स्वभाव में स्थित योगी मुनिराज उदय आये हुए किसी भी इन्द्रिय विषय को बिल्कुल भी नहीं जानते। वह योगी मात्र अपने आत्मा को ही जानता है और वह उसी अतिविशुद्ध आत्मतत्त्व को ही देखता है, जानता है। इस प्रकार से समस्त विकल्पों के अवरुद्ध होने पर उसको अद्वितीय शाश्वत भाव की उत्पत्ति होती है, जो वास्तविकता में उसका स्वयं का स्वभाव है। वह ज्ञानी तो निश्चय से मोक्ष का कारण है। आगे आचार्य कहते हैं कि समस्त विकल्पों के अवरुद्ध होने पर यदि कोई अद्वितीय शाश्वतभाव उत्पन्न होता है, जो आत्मा का स्वरूप/स्वभाव है। यही निश्चय नय की अपेक्षा से मोक्ष का कारण है। इस प्रकार के आत्म स्वभाव में स्थित योगी, उदय में आये हुए पञ्चेन्द्रिय विषयों को नहीं जानता है अपितु आत्मा को ही जानता है और उसी अतिविशुद्ध आत्मा को देख पाता है।' इसी प्रकार निश्चयनय की अपेक्षा से जीवात्मा का स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी आदि अनेक आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में विशद रूप से वर्णन किया है। तत्त्वसार गा. 57-58 वही गा. 60-62 वही गा. 61-62 402 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org