________________ गोचर नहीं है, वह वीतराग स्वसंवेदन से ही ग्रहण किया जाता है। ऐसे जो लक्षण हैं वह आत्मा को प्ररूपित करने वाले हैं। आगे आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि यह आत्मा निरञ्जन स्वभावी है। निरञ्जन शब्द दो पदों से मिलकर बना है - निर् + अञ्जन। निर् उपसर्ग का सामान्य अर्थ रहित है और अञ्जन का सामान्य अर्थ है काजल। काजल का अर्थ पक्ष में कर्म कालिमा से है और यह आत्मा निश्चय नय की अपेक्षा से सर्वकर्ममलों से रहित है, इसलिये आत्मा को निरञ्जन स्वभावी कहा गया है। और भी कहते हैं कि जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ, शल्य, लेश्या, जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा भी नहीं है, वही निरञ्जन मैं कहा गया हूँ।' इसी प्रकार के विषय को और संपोषित किया है आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने, वे कहते हैं- . . न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले।' . अर्थात् भय किस बात का है, जब मृत्यु ही मेरी नहीं है और जिसकी मृत्यु है, उसे कोई भी नहीं बचा सकता है। मेरा आयुकर्म शेष है तो औषधि मुझे बचाने में निमित्त बनती है और यदि मेरा आयु कर्म शेष नहीं है तो औषधि भी कुछ नहीं कर सकती है। न मैं बालक हूँ, न वृद्ध हूँ और न ही युवक हूँ, ये सब तो पुद्गल की अवस्थायें हैं। मेरा तो स्वभाव इन सबसे रहित निरञ्जन है। - और भी आचार्य कहते हैं कि - जो सिद्ध जीव नोकर्म और कर्ममल से रहित हैं, केवलज्ञानादि अनन्त गुणों से समृद्ध हैं। निश्चयनय से वही मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, नित्य हूँ, एक स्वरूप हूँ और निरालम्ब हूँ, मैं शरीर प्रमाण हूँ, मैं नित्य हूँ, मैं असंख्य प्रदेशी हूँ और अमूर्त हूँ। ये सब गुण हमारे आत्मा में सदा से विद्यमान हैं और रहेंगे परन्तु जैसे सूर्य के प्रकाश को बादल ढक लेते हैं प्रकट नहीं होने देते वैसे ही आत्मशक्ति को क्रममल रूपी बादलों ने ढक दिया है, उसको प्रकट करना है, कर्ममलरूपी बादल को दूर तत्त्वसार गा. 19 इष्टोपदेश श्लो. 29 तत्त्वसार गा. 27-28 401 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org