________________ तृतीय परिच्छेद : स्वशुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति का उपाय निश्चय और व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मस्वरूप को अवगमन करने के पश्चात् यह जीव इन्द्रिय और मन के विषयों में रमता नहीं है। समस्त विषयों से उदासीन होकर ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा निज आत्मा में लीन हो जाता है। आचार्य कहते हैं कि जब तक सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का नाश नहीं होता है तब तक यह जीव पूर्ण रूप से वीतरागता को प्राप्त नहीं हो पाता है। क्योंकि मोहनीय कर्म ही सर्वकर्मों को शक्ति प्रदान करता है। मोहनीय का नाश हो जाने पर शेष कर्मों का नाश सहज ही हो जाता है, क्योंकि मोहनीय कर्म सभी कर्मों का राजा है। जिस प्रकार राजा के मारे जाने पर सेना का कोई भी माहात्म्य नहीं रहता है, वह स्वयं ही नष्टप्राय हो जाती है, उसी प्रकार राजा मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर शेष घातिया कर्म भी शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाते चारों घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर लोक और अलोक का प्रकाशक, त्रिकाल का ज्ञाता, सर्वोत्कृष्ट शुद्ध केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकटित हो जाता है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर यह जीव तीनों लोकों में पूज्यता को प्राप्त कर पुनः शेष अघातिया कर्मों का क्षय करके अभूतपूर्व लोक के अग्र भाग का निवासी सिद्ध परमात्मा बन जाता है। यह वह अवस्था है जिसे प्रत्येक जीव प्राप्त करना चाहता है और यही सबका लक्ष्य है। आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि जिस जीव को स्व शुद्धात्म की प्राप्ति करना इष्ट है तो उसे स्वगत तत्त्व और परगत तत्त्व की आराधना निरन्तर करते रहना , चाहिये, जिससे मोहनीय कर्म का क्षय करने और संसार सागर से तिरने की सामर्थ्य में वृद्धि होती रहती है। आचार्य कहते हैं कि यह ध्यातव्य है कि जब तक स्वतत्त्व की प्राप्ति न हो जाय तब तक परगत तत्त्व अर्थात् पञ्चपरमेष्ठी को न भूल जाय। ' पञ्चपरमेष्ठी की स्तुति पूजन यह जीव इसलिये करता है कि जिससे उसे 'ऐसा ही स्वरूप मेरा है' यह भान होता रहता है। वह परमेष्ठियों की स्तुति पूजन अपने स्वरूप तत्त्वसार गा. 65 404 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org