________________ झाणग्गिदड्ढकम्मे णिम्मलसुविसुद्धलद्धसब्भावे। णमिऊण परमसिद्ध सतच्चसारं पवोच्छामि॥ अर्थात् आत्मध्यान रूपी अग्नि से ज्ञानावरणादि आठों कर्मों को दग्ध करने वाले, निर्मल और परम विशुद्ध आत्मस्वभाव को प्राप्त करने वाले, परम सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके श्रेष्ठ तत्त्वसार को कहूँगा। सिद्ध भगवान् अध्यात्मक की प्रतिमूर्ति हैं, इसलिये समस्त आचार्य आध्यात्मिक ग्रन्थ की शुरुआत में सिद्धपरमात्मा को ही मंगलाचरण में मंगलरूप ग्रहण करते हैं और नमस्कार करते हैं। - इस प्रकार मंगलाचरणोपरान्त अपने सहज सुख साधन से सम्पन्न आत्मतत्त्व की - शक्ति और सुख का वर्णन भी इतना सहज किया है कि कोई भी इस अध्यात्म के - प्रभाव से प्रभावित हए बिना नहीं रहेगा। सुगम्य अध्यात्म के समान ही सरल प्राकृत गाथाओं में किया है। जिस व्यक्ति को अल्प ज्ञान भी प्राकृत भाषा का हो, तो वह भी उन गाथाओं का भावार्थ आसानी से समझ सकता है। सर्वप्रथम आचार्य देवसेन कहते हैं कि धर्मप्रवर्तन और भव्यों को धर्म का मर्म समझाने के लिये पूर्वाचार्यों ने तत्त्व को अनेक भेद रूप प्ररूपित किया है। यहाँ उनका अभिप्राय है कि आचार्यों ने तत्त्वों के जीवादि सात भेद किये हैं। तत्त्व का सामान्य रूप से आशय यह है कि पदार्थ जिस रूप में होता है उसका उस रूप होना ही तत्त्व कहलाता है। सामान्य से पदार्थों के स्वभावगत तत्त्वों की गणना करना चाहें तो वे असंख्यात लोकप्रमाण भेद वाले हैं। भेदगत दृष्टि से तो तत्त्व सात ही होते हैं। इन सातों तत्त्वों का स्वरूप वर्णन पूर्व अध्याय में कर चूका हूँ। आचार्य देवसेन स्वामी का यहाँ आशय यह है कि तत्त्वों का निरूपण भव्य जीवों को तत्त्वबोध कराने एवं धर्मप्रवर्तन हेतु किया गया है। उनका कहना है कि जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होगा, तब तक तत्त्वदृष्टि नहीं बन सकती। वह तत्त्वज्ञान सद्शास्त्रों के अध्ययन, मनन, चिन्तन से ही संभव हो सकता है, क्योंकि बिना तत्त्वज्ञान के आत्मकल्याण होना असंभव है। अतः प्रत्येक साधर्मी श्रावक का परम कर्तव्य है कि तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मतत्त्व की प्राप्ति की जाय जो कि जीव का परम लक्ष्य है। 393 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org