________________ द्वितीय परिच्छेद : विभिन्न उपमाओं वाला आत्मा निर्ग्रन्थ स्वरूप - निर्ग्रन्थ आत्मा का स्वरूप प्रदर्शित करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - बहिरब्भंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविह जोएण। सो णिग्गंथो भणिओ जिणलिंग समासिओ समणो॥' अर्थात् इस लोक में जिसने मन, वचन और काय इन तीन प्रकार के योगों से .. बाह्य और अन्तरंग परिग्रहों का त्याग कर दिया है, वह जिनेन्द्र देव के लिंग का आश्रय करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ कहा गया है। यहाँ आचार्य का आशय स्पष्ट है कि ग्रन्थ / अर्थात् परिग्रह रहित जो श्रमण है, वही निर्ग्रन्थ है। वह निर्ग्रन्थ ही शुद्धोपयोग की अवस्था को प्राप्त हो सकता है। शुद्धोपयोग का स्वरूप विवेचित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं सुविदिद पयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगोत्ति।' अर्थात् जिन्होंने अच्छी प्रकार से पदार्थ और सूत्रों को जान लिया है, संयम-तप . से युक्त हैं, जिनका राग भाव बीत चुका है अर्थात् वीतरागी हैं, सुख-दुख में साम्य भाव धारण करते हैं, ऐसे श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा गया है। पूज्य आचार्य के कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक को कदापि शुद्धोपयोग की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती है। जो एकान्ती मूढ़ बिना संयम धारण किये ही अव्रत अवस्था में निश्चय आत्मानुभूति और शुद्धोपयोग निर्विकल्प ध्यान मान रहे हैं, उन्हें इस गाथा का अर्थ अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये। आचार्य शुभचन्द्र ने भी ज्ञानार्णव में यह विषय अच्छी तरह से स्पष्ट किया है कि - जैसे आकाश का फूल, गधे के सींग किसी भी क्षेत्र में एवं किसी भी काल में नहीं होते हैं, वैसे ही निर्विकल्पक ध्यान, शुद्धोपयोग की सिद्धि. गृहस्थ आश्रम में किसी भी क्षेत्र में और किसी भी काल में तत्त्वसार गा. 10 प्रवचनसार गा. 14 398 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org