________________ जब तक इसमें आत्मा होता है। वह हँसता, बोलता, देखता, सुनता, सँघता आदि है और जीव के निकल जाने से शरीर निष्क्रिय हो जाता है। मैं सुखी, दु:खी आदि भी जीव के रहने पर ही अनुभूत होता है। जातिस्मरण से पहले मैं क्या था आदि बातें प्रत्यक्ष देखी गई हैं। सभी जीवों का आकारादि अलग-अलग होना भी एक कारण है जिससे उन जीवों के पर्व पर्यायों में उनकी सत्ता सिद्ध करता है। ये प्रत्यक्ष प्रमाण मानने से ही ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते और अनुमान प्रमाण को चार्वाक स्वीकार नहीं करते। इन्द्रियज्ञान ही एक मात्र यथार्थ ज्ञान है अर्थात् जो इन्द्रियों के ज्ञान में आ रहा है वही सही है उसके अलावा सब कुछ भ्रम है। ये चार्वाक व्याप्ति, कार्यकारण सम्बन्ध, शब्द और वेदों को प्रामाणिक नहीं मानते हैं। चार्वाक चार (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) भतों को ही स्वीकार करते हैं, आकाश को अनुमान से सिद्ध होने के कारण स्वीकार नहीं करते हैं। चैतन्य को ये शरीर का एक विशिष्ट गुण मानते हैं जो शरीर के साथ उत्पन्न और शरीर के साथ ही समाप्त हो जाता है। अतः ये चार्वाक मत वाले सिर्फ सुख को ही अपना लक्ष्य मानकर अर्थ और काम पुरुषार्थ में ही संलग्न रहते हैं। इस प्रकार ये ऐसी मिथ्या धारणाओं को अपनाकर धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को नहीं मानते, क्योंकि जीवन को नष्ट होना ही मोक्ष मानते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि यह शरीर तब तक ही गमनागमन करता है जब तक इसमें आत्मां रहता है, क्योंकि मृत शरीर न / देखता है, न सुनता है, न चलता है, न सोता है। अतः इस मिथ्या धारणा का शीघ्र ही परिहार करके चार्वाक रूप मिथ्यामत का विश्वास नहीं करना चाहिये। 386 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org