Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

Previous | Next

Page 387
________________ वन में चला गया। वहाँ रीछनी को तिलोत्तमा समझ उससे कामभोग करने लगा, तब उससे राम का सेवक जम्बू नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऐसा कुत्सित आचरण करने वाला ब्रह्मा देव कैसे हो सकता है? जो स्वयं अपना उद्धार नहीं कर सकता वह तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाला कैसे हो सकता है? क्या वह अपने लिये एक स्त्री पैदा नहीं कर सकता था? निराकरण करते हुए आचार्य और भी कहते हैं कि इस संसार में जब कुछ भी (पृथ्वी, आकाश आदि) नहीं था तो ब्रह्मा ने कहाँ बैठकर इन सबकी रचना की। कर्ता दो प्रकार के होते हैं - एक यथार्थ कर्ता और दूसरा वैक्रियिक। घट, पट, घर आदि बनाना यथार्थ कर्तापन है और जो देवों द्वारा निर्मित होता है वह वैक्रियिक कहलाता है। यदि ब्रह्मा यथार्थ रूप से तीनों लोकों को बनाता है तो ईंट, चूना आदि पदार्थ कहाँ थे, क्योंकि उससे पहले तो ये थे ही नहीं। बिना सामग्री के कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती। दूसरा यदि लोक को अपनी विक्रिया से बनाया है तो ये पदार्थ अधिक समय तक ठहर नहीं पाते, क्योंकि वैक्रियिक पदार्थ अनित्य और अवस्तु भूत होते हैं। अतः यह सिद्ध होता है कि ब्रह्मा सामान्य पुरुष के समान बिना सामग्री के इस लोक की रचना करने में असमर्थ है। जो एक अप्सरा के प्रति आसक्त होकर तप छोड़ सकता है, तो वह पूज्य परम देव कैसे हो सकता है? अतः जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होता है वही परमब्रह्मा अथवा परमात्मा हो सकता है। अब आगे कृष्ण (विष्णु) के विषय को प्रतिपादित करते हैं और उनके द्वारा संसार की रक्षा होने का निराकरण करते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी कहते हैं कि - यदि विष्णु सूकर का रूप धारण करके अपनी दाढ़ पर सम्पूर्ण लोक को उठा लेते हैं तो वह कहाँ पर ठहरे होते हैं। यदि कोई यह कहे कि वे कछुआ की पीठ पर स्थित रहते हैं तो फिर यह प्रश्न उठता है कि वह कछुआ कहाँ स्थित है, क्योंकि सम्पूर्ण लोक को तो विष्णु उठाये हुए हैं। और भी बताते हैं - विष्णु राम के अवतार में जब वन में थे तो रावण अपनी मायाचारी से उनकी पत्नी सीता का हरण करके ले गया। विष्णु जगत् भा. सं. गा. 212-216 वही गा. 219-220 वही गा. 224 381 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448