Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 356
________________ आराधना करना और मुनियों को प्रतिदिन पूजापूर्वक आहार दान देना नित्यमह कहा है।' 2. चतुर्मुख (सर्वतोभद्र) - मण्डलेश्वर राजाओं के द्वारा भक्तिपूर्वक जो जिनेन्द्रदेव की पूजा की जाती है उसको सर्वतोमुख, चतुर्मुख और महामह कहते हैं। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि - जिनको सामन्त आदि के द्वारा मुकुट बांधे गये हैं उन्हें मुकुटबद्ध या मण्डलेश्वर कहते हैं। वे जब भक्तिवश जिनदेव की पूजा करते हैं तो उस पूजा को सर्वतोभद्र आदि कहते हैं। वह पूजा सभी प्राणियों को कल्याण करने वाली होती है, इसलिये उसे सर्वतोभद्र कहते हैं। चतुर्मुख मण्डप में की जाती है इसलिये इसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं। अष्टाह्निक की अपेक्षा महान् होने से इसे महामह कहते हैं। यहाँ पर 'भक्तिवश' शब्द का प्रयोग इसलिये किया गया है कि यदि मण्डलेश्वर, चक्रवर्ती आदि के भय से यह पूजा करता है तो उसकी यह गरिमा समाप्त हो जाती है। यह पूजा भी कल्पद्रुम पूजा के समान ही होती है बस इसमें इतना अन्तर है कि कल्पद्रुम में चक्रवर्ती अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में किमिच्छक दान देता है और मण्डलेश्वर केवल अपने जनपद में ही दान देता है। 3. कल्पद्रुम पूजा - 'क्या चाहते हो' इस प्रकार के प्रश्नपूर्वक याचक की इच्छा के अनुरूप दान के द्वारा लोगों के मनोरथों को पूरा करके चक्रवर्ती के द्वारा जो जिनेन्द्र भगवान् की पूजा की जाती है उसे कल्पद्रुम पूजा कहते हैं।' 4. अष्टाह्निक पूजा - भव्य जीवों के द्वारा नन्दीश्वर पर्व में अर्थात् प्रतिवर्ष आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन के शुक्लपक्ष के अन्तिम आठ दिन अर्थात् अष्टमी से पूर्णिमा तक जो नन्दीश्वर द्वीप में विराजमान 52 अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं उनमें विराजमान जिनेन्द्र भगवान् की जो पूजा की जाती है वह अष्टाह्निक पूजा कहलाती है। म. पु. 38/27-29, सा. ध. 2/25 म. पु. 38/30, सा. ध. 2/27 म. पु. 38/31, सा. ध. 2/28 म. पु. 38/32, सा. ध. 2/26 350 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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