________________ हो और कामादिक विकारी भावों को नष्ट करने वाला हो। इसीप्रकार पूजक का विशेष स्वरूप प्रकट करते हुए कहते हैं कि पूजक वही हो सकता है जो पूज्य के गुणों में अत्यन्त आदरभाव से अनुराग और भक्ति रखता हो। पूजा के विषय में कहते हैं कि देव-शास्त्र-गुरु की उनके पद के अनुरूप परिचर्या करना, अर्थात् प्रतिमा रूप देव की अभिषेक तथा पूजना करना, शास्त्रों की विनय करते हुए उनकी सुरक्षा तथा उनके द्वारा प्रतिपाद्य तत्त्वों का प्रचार करना और निर्ग्रन्थ गुरुओं की पूजा करते हुए उनकी आहारादिक की व्यवस्था करना ही सही मायने में पूजा है। पूजा के फल को तो स्पष्ट ही कर चुके हैं कि दु:खों का सम्पूर्ण रूप से नाश होना है। सम्यग्दृष्टि श्रावक भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करते समय यह भाव रखता है कि - हे भगवान्! जैसी शान्तनिर्विकार मुद्रा आपकी है, वैसी ही मुद्रा मेरी भी हो जावे, यही मेरा भी स्वभाव है, परन्तु मैं स्वभाव को भूलकर विभाव रूप में परिणमन करता हुआ संसार के दु:खों को भोग रहा हूँ। आपकी पूजा के फलस्वरूप मैं बस यही चाहता हूँ कि मैं स्वकीय शुद्ध स्वभाव में स्थिर रहूँ। इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के पद की इच्छा मुझे किञ्चित् भी नहीं है, उन्हें तो मैं अपने संसार काल में अनन्तबार प्राप्त कर चुका हूँ। जो मनुष्य निश्छल भाव से जिस किसी भी विधि से भगवान् की पूजा करता है उसकी सभी इच्छायें पूर्ण हो जाती हैं। पूजा के भेद पूजा भी कई प्रकार से की जाती है, अतः उनको अलग-अलग भेद के रूप में पिरोकर आचार्यों ने पूजा के भी भेद प्रस्तुत किये हैं। आचार्य जिनसेन स्वामी लिखते हैं कि पूजा चार प्रकार की होती है - सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टान्हिक। 1. सदार्चन (नित्यमह) - आचार्य कहते हैं कि - प्रतिदिन अपने घर से लाए हुए जल, चन्दन, अक्षत आदि के द्वारा जिनालय में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करना अथवा अपने धन से जिनबिम्ब जिनालय आदि का बनवाना अथवा भक्तिपूर्वक गाँव, मकान, जमीन आदि शासन के विधान के अनुसार रजिस्ट्री आदि कराकर मन्दिर के निमित्त देना, अथवा अपने घर में भी तीनों संध्याओं में अर्हन्त देव की म. पु. 38/26, ध. 8/94, चा. सा. 43/1 349 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org