________________ जीव जैसा कर्मबन्ध करता है वैसे ही कर्मबन्ध के अनुसार ही नरक-स्वर्ग में जाता है। यदि क्षणिक माना जाय तो जो पाप करेगा उसका फल दूसरा भोगेगा, ऐसी अवस्था में कोई भी कैसा भी पाप करेगा, क्योंकि फल तो उसे मिलेगा ही नहीं, और जो पुण्य करेगा तथा फल पाप का पा जायेगा तो संसार की सारी स्थिति अव्यवस्थित हो जायेगी। ऐसी अवस्था में जीव भी क्षणस्थायी ठहरेगा। इस स्थिति में जीव के द्वारा न तो तपश्चरण संभव होगा, न व्रत धारण होगा. न वस्त्र धारण करना संभव होगा, न मस्तक मुंडाना और न ही सात घरों में भिक्षा माँगना संभव होगा। जब यह जीव दूसरे ही क्षण में नष्ट हो जाता है तो वह कोई भी कार्य नहीं कर सकेगा।' यदि जीव के ज्ञान को क्षणिक माना जाय तो बचपन में उसने क्या काम किया था, वह भूल जायेगा, घर से निकलकर बाहर गया जीव लौटकर कैसे आ पायेगा? फिर भी सभी लोग अपने घर लौटकर आते हैं। यदि आत्मा की चैतन्य शक्ति भी अनित्य अर्थात् क्षणिक माना जाय तो शरीर में उत्पन्न हुई चिरकाल की व्याधि का स्मरण कैसे कर लेता है और देखने मात्र से ही अपने शत्रु अथवा मित्र को पहचान लेता है, क्योंकि ये कार्य चैतन्य की नित्यता के बिना संभव ही नहीं है। क्षणिकवादी लोग अपने पात्र में आये हुए भक्ष्य-अभक्ष्य आदि पदार्थों को ग्रहण करने में कोई दोष नहीं मानते हैं। ऐसा करने पर भी वे स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा रखते हैं, जबकि यह सर्वथा असंभव है। अगर शराब पीकर एवं मांस-भक्षण करके स्वर्गादि की प्राप्ति करते हैं तो संसार के सभी मद्यपायी और मांस-भक्षी हत्यारे पारधी आदि सब स्वर्ग चले जायेंगे, जबकि यह कदापि संभव नहीं है। अतः यह समझना चाहिये कि इस लोकाकाश में सभी जीवादि द्रव्य पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अनित्य और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य हैं, क्योंकि पर्यायें सदा बदलती रहती हैं और द्रव्य सदैव विद्यमान रहता है। जैसे एक बालक धीरे-धीरे बढ़ता है और बड़ा हो जाता है, वह बालक से युवा हो जाता है। बालक पर्याय का नाश और युवा पर्याय का उत्पन्न होना परन्तु उसका जीव बालक में भी था और युवा में भी है। तभी तो कहते हैं 'यह वही भा. स. गा. 65 वही गा. 68 373 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org