________________ के पास कई विद्यायें थीं फिर भी उन्होंने रावण के प्राणों की रक्षा नहीं कर पाई थी। जैसे ही उसका आयुकर्म पूर्ण हुआ और वह अपने द्वारा ही चलाये चक्र से मारा गया। अतः यह सिद्ध हुआ कि कोई भी देवी-देवता कुछ भी करने में समर्थ नहीं है, इसलिये जो सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी अरिहन्त देव को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं तो वे देते तो कुछ भी नहीं है परन्तु उनकी भक्ति से महान् पुण्य का बंध होता है और उससे इच्छित पदार्थों की प्राप्ति स्वयमेव हो जाती है। इसके अलावा अपनी आत्मा का ध्यान करने से आत्मा निर्मल हो जाती है और उससे वह जीव स्वयं भी अरिहन्त अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इसलिये सभी रागी देवी-देवताओं की विनय करने का नियम से त्याग करना चाहिये। अब संशय मिथ्यात्व की उत्पत्ति और उसके दोषों को कहते हैं - आचार्य देवसेन स्वामी श्वेताम्बर मतानुयायियों को संशय मिथ्यात्वी मानते हैं। वि. सं. 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर जिसका उल्लेख सन् 640 में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने किया है, में श्वेताम्बर संघ श्रीभद्रबाहुगणि के शिष्य शान्ति नामक आचार्य का शिथिलाचारी और दुष्ट शिष्य 'जिनचन्द्र' ने किया था। उनके मन में यह संशय बना रहता है कि मोक्ष की प्राप्ति निर्ग्रन्थ लिंग (दिगम्बर अवस्था) से अथवा सग्रन्थ लिंग (श्वेताम्बर की अवस्था) से होती है। अतः ये संशय मिथ्यात्वी कहे गये हैं। एक विशेष तथ्य ध्यान देने योग्य है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में जिनचन्द्र का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसके अलावा गोम्मटसार के अनुसार 'इन्द्र' नामक मुनि को कहा गया है, परन्तु भद्रबाहु चरित्र के कर्ता इन दोनों को न बतलाकर रामल्य स्थूलभद्रादि को इसका प्रवर्तक बतलाते हैं। पं. नाथूराम प्रेमी जी एवं प्रो. कमलेश कुमार जैन वाराणसी का ऐसा मानना है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद गौतम स्वामी, सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी इन तीन केवलियों तक दिगम्बर और श्वेताम्बर में समानता थी। इसके आगे जो श्रुतकेवली हुए हैं उनमें दोनों में मतभेद है। भद्रबाहुस्वामी जो अन्तिम श्रुतकेवली हैं, को दोनों सम्प्रदाय मानते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आगम अथवा सूत्रग्रन्थ वीर निर्वाण संवत् 980 (वि. सं. 510) के लगभग वल्लभीपुर में 1 द. सा. गा. 11-12 375 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org